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यह नया नाम रखा और बड़े परिश्रम से शिक्षा देकर इसे गीत, नृत्य आदि सिखाया, क्योंकि इन कलाओं में निपुणता ही केवल वारांगनाओंका धन है । क्रमशः सुवर्णरेखा वेश्या - कर्ममें इतनी निपुण हो गई कि मानों जन्म ही से वेश्याका धन्धा करती हो । ठीक ही है, पानी जिसके साथ मिलता है वैसा ही रंग रूप ग्रहण कर लेता है । दुर्जनकी संगतिको धिक्कर है ! देखो, वह सोमश्री एक भव छोड़ कर मानो दूसरे भव में गई हो इस भांति बिलकुल ही बदल गई अथवा दुर्दैववश एक ही भवमें अनेक भव भोग रही है। सुवर्णरेखाने अपनी कलाओंसे राजाको इतना प्रसन्न किया कि जिससे उसने इसे अपनी चामरधारिणी नियत कर दी।
मुनि कहते हैं कि, "हे श्रीदत्त ! यह तेरी माता ऐसी हो गई है मानो दूसरा भव पाई हो । पूर्वका रूप वर्ण बदल जानेसे तूं इसे पहिचान न सका, परन्तु इसने तुझे पहिचान लिया था तथापि शर्म और द्रव्य लोभसे परिचय नहीं दिया । जगत लोभका कैसा अखंड साम्राज्य है ? किसीने इस लोभको नहीं छोडा । धिक्कार है ! ऐसे वेश्या - कर्मको ! जो संपूर्ण पाप व दुष्कर्मकी सीमा कहलाता है तथा जिससे प्रत्यक्ष माता पुत्रको पहिचान कर भी द्रव्यलोभसे उसके साथ काम-क्रीडा करने की इच्छा करती हैं । वही व्यक्ति सर्वथा योग्य है जो ऐसी शीलभ्रष्ट वेश्याओंको निंद्यातिनिंद्य तथा त्याज्यसे त्याज्य है । "
मानता