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उपशमश्रेणी में औपशमिक सम्यग्दृष्टि की पतद्ग्रहविधि
अब उपशमश्रेणी में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम का आश्रय करके पतद्ग्रहविधि का कथन करते हैं
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[ कर्मप्रकृति
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चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव की सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की पतद्ग्रह है । अतः उसे निकाल देने पर शेष तेईस प्रकृतियां पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूप पतद्ग्रहसप्तक में संक्रांत होती हैं । उपशमश्रेणी में वर्तमान उसी जीव के अन्तरकरण करने पर संज्वलनलोभ का संक्रम नहीं होता है इसलिये उसे निकाल देने पर शेष बाईस प्रकृतियां पूर्वोक्त पतद्ग्रहसप्तक में संक्रांत होती हैं, उसी जीव के नपुंसकवेद के उपशांत हो जाने पर बीस प्रकृतियां पतद्ग्रहसप्तक में संक्रांत होती हैं ।
इसके पश्चात् पुरुषवेद की प्रथम स्थिति में समय कम दो आवलिका शेष रह जाने पर पुरुषवेद पतद्ग्रह नहीं रहता है । क्योंकि ऐसा कर्ममनीषियों का कथन है
दुसु आवलियासु पढमठिईसु सेसाऽवियवेदो । अर्थात् प्रथम स्थिति की दो आवलिका शेष रहने पर वेद भी पतद्ग्रह नहीं रहता है ।
अतएव पूर्वोक्त सप्तक में से पुरुषवेद के निकाल देने पर शेष छह प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में पूर्वोक्त बीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं। इसके बाद छह नोकषायों के उपशांत हो जाने पर शेष चौदह प्रकृतियां पूर्वोक्त छह प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं जब तक एक समय कम दो आवलिकाल शेष रहता है । तत्पश्चात् पुरुषवेद के उपशांत हो जाने पर शेष तेरह प्रकृतियां छह प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं और वे प्रकृतियां तब तक संक्रांत होती हैं जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल समाप्त होता है ।
तत्पश्चात् संज्वलनक्रोध की प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलिका शेष रहने पर संज्वलन क्रोध भी पतद्ग्रह नहीं रहता है। क्योंकि ऐसा कर्मसिद्धांत का मत है
तिसु आवलियासु समऊणियासु अपडिग्गहाउ संजलणा ।
अर्थात् एक समय कम तीन आवलिकाओं के शेष रह जाने पर संज्वलन कषाय अपतद्ग्रह हो जाती हैं ।
इस कारण पूर्वोक्त पतद्ग्रहषट्क में से उसे निकाल देने पर शेष पांच प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में वे ही तेरह प्रकृतियां संक्रांत होती हैं । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध के उपशांत हो जाने पर शेष पूर्वोक्त ग्यारह प्रकृतियां पतद्ग्रहपंचक में संक्रांत होती हैं और एक समय