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संक्रमकरण ]
___ [ १०७ कर भव के अन्त में त्रिचरम या द्विचरम समय में उत्कृष्ट कषायस्थान को प्राप्त कर और चरम अथवा द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त कर चरम समय में वह जीव सम्पूर्ण गुणितकर्मांश होता है। यहां उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व में इससे ही प्रयोजन है।
विशेषार्थ – ग्रन्थकार ने संक्रम के स्वामित्व की प्ररूपणा के प्रसंग में गुणितकर्मांश का स्वरूप स्पष्ट किया है कि -
त्रस दो प्रकार के हैं - १. सूक्ष्म और २. बादर। उनमें द्वीन्द्रियादिक बादर त्रस हैं और सूक्ष्म तैजसकायिक और वायुकायिक जीव हैं। यहां पर सूक्ष्म त्रसों का व्यवछेद करने के लिये बादर पद का ग्रहण किया है। द्वीन्द्रियादि बादर त्रसजीवों का जो कायस्थितिकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण है, उससे न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कर्मस्थिति है। उतने काल तक बादर पृथ्वीकाय के भवों में रहा। किस प्रकार रहा? यह बताने के लिये गाथा में पजत्त इत्यादि पद दिया गया है। यहां दीर्घ और इतर (अल्प) अद्धा (काल) के साथ पर्याप्त और अपर्याप्त पदों की यथाक्रम से योजना करना चाहिये। तब उसका यह अर्थ हुआ कि पर्याप्त भवों में दीर्घकाल तक और अपर्याप्त भवों में अल्पकाल तक स्थित रहा तथा अनेक बार बहुत से उत्कृष्ट योगस्थानों में और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों वाले काषायिक स्थानों में रहा।
शेष एकेन्द्रियों से बादर पृथ्वीकाय की आयु बहुत है अतः उससे अविच्छिन्न रहते हुये बहुत कर्मपुद्गलों का उसके ग्रहण होता है और बलवान होने से उसके अतिवेदना की सहिष्णुता है। इससे बहुत कर्मपुद्गलों की निर्जरा नहीं होती है। इस कारण यहां बादर पृथ्वीकायिक को ग्रहण किया है तथा अपर्याप्त भव का ग्रहण परिपूर्ण कायस्थिति को बताने के लिये किया गया है। अपर्याप्तक अल्प भवों का और पर्याप्तक बहुत भवों का ग्रहण बहुत कर्मपुद्गलों की निर्जरा का अभाव प्रतिपादन करने के लिये किया है। अन्यथा निरन्तर उत्पन्न होने और मरने वाले जीवों में बहुत से पुद्गल निर्जरा को प्राप्त होते हैं, किन्तु यहां उससे प्रयोजन नहीं है। उत्कृष्ट योगस्थानों में वर्तमान जीव बहुत से कर्मदलिकों को ग्रहण करता है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाला जीव उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है। बहुत सी स्थिति का उद्वर्तन करता है – बढ़ाता है और अल्प स्थिति का अपवर्तन करता है – घटाता है, यह बताने के लिये उत्कृष्ट योग और कषाय पद का ग्रहण किया गया है। यथा -
'निच्चं' इत्यादि अर्थात् सर्वकाल भव भव में आयु बंध के समय जघन्य योग में वर्तमान रहते हुये आयु का बंध करके और आयु के योग्य उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव से बहुतसे आयु कर्म के पुद्गलों को ग्रहण करता है और इस प्रकार का स्वभाव होने से ज्ञानावरण आदि कर्मों के बहुत से पुद्गलों की निर्जरा करता है, किन्तु यहां पर उनका प्रयोजन नहीं है। इसलिये यहां जघन्य योग का ग्रहण किया है तथा उपरितन स्थितियों में कर्मदलिक के निक्षेपण रूप निषेक को अपनी भूमिका के अनुसार अत्यन्त अधिक करता है। इस प्रकार