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उपशमनाकरण ]
अध्यवसायस्थान प्रतिसमय असंख्य लोक प्रदेश प्रमाण होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि यथाप्रवृत्तकरण में और अपूर्वकरण में प्रति समय असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों की राशि प्रमाण अध्यवसाय स्थान होते हैं। वे इस प्रकार से समझना चाहिये कि
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नाना जीवों की अपेक्षा यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में विशुद्धि स्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण होते हैं । द्वितीय समय में उन से विशेषाधिक होते हैं, उनसे भी तृतीय समय में विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय तक कहना चाहिये । अपूर्वकरण में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । ये यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण संबंधी अध्यवसायस्थान स्थापित किये जाने पर विषम चतुरस्रसंस्थान को व्याप्त करते हैं । इन दोनों करण परिणामों के ऊपर अनिवृत्तिकरण के अध्यवसाय मुक्तावली के आकार वाले होते हैं ।' ऊपर-ऊपर की ओर मुख वाले ये अध्यवसाय स्थान विचार किये जाने पर प्रति समय अनन्तगुणवृद्धि से प्रवर्धमान जानना चाहिये और तिर्यक् रूप में षट्स्थानपतित' जानना चाहिये । इन करण परिणामों की स्थापना इस प्रकार है -
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मन्दविसोही पढमस्स, संखभागाहि पढमसमयम्मि । उक्कस्सं उप्पिमहो, एक्केक्कं दोण्हं जीवाणं ॥ १० ॥ आचरमाओ सेसु - क्कोसं पुव्वप्पवत्तमिइनामं । बिइयस्स बिइयसमए, जहण्णमवि अणंतरुक्कस्सा ॥ ११॥
शब्दार्थ मन्दविसोही मन्द (जघन्य) विशुद्धि, पढमस्स प्रथम करण की, संख भागाहि - संख्यातवें भाग, पढमसमयम्मि प्रथम समय में, उक्कस्सं उत्कृष्ट, उप्पिमहो ऊपर नीचे, एक्केक्कं - . एक एक, दोन्हं – दोनों, जीवाणं - जीवों की ।
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आचरमाओ • अन्त्यसमय की, सेसुक्कोसं
शेष उत्कृष्ट विशुद्धि, पुव्वप्पवत्तमिइनामंपूर्वप्रवृत्त यह भी नाम है, बिइयस्स - दूसरे की, बिड़यसमए – दूसरे समय में, जहण्णं – जघन्य, अवि – भी, अणंतरुक्कस्सा - अनंतगुणी ।
गाथार्थ
करणप्रतिपन्न दो जीवों में से एक जीव की प्रथम करण के प्रथम समय में मन्द विशुद्धि है। उससे प्रति समय अनंतगुणी बढ़ती हुई जघन्य विशुद्धि करण के संख्यातवें भाग तक जानना चाहिये। उससे अन्य जीव की प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है। इस प्रकार ऊपर
१. असत्कल्पना से इन यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों का प्रारूप एवं स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये ।
२. एक ही समयगत अध्यवसाय स्थानों में परस्पर विशुद्धि मात्रा की तारतम्यता की अपेक्षा ही षट्स्थानपतितपना जानना चाहिये ।