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[ कर्मप्रकृति
होता है। पर्याप्त जीव के बहुत सी प्रकृतियां उदय में आती हैं और उदय को प्राप्त प्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रमण नहीं होता है। ऐसा होने पर विवक्षित प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय पाया जाता है। इसलिये 'पर्याप्त के' ऐसा कहा गया है।
तीर्थंकर नामकर्म का तो क्षपितकांश सयोगीकेवली के तीर्थंकर प्रकृति के उदय होने के प्रथम समय में जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये। उसके पश्चात् गुणश्रेणी संबंधी दलिक बहुत पाये जाते हैं, इसलिये वहां जघन्य प्रदेशोदय संभव नहीं है।
इस प्रकार उदय का विवेचन जानना चाहिये।