Book Title: Karm Prakruti Part 02
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 518
________________ ४८४ ] [ कर्मप्रकृति अविरत न विरतोऽविरतः xxx सावधयोगप्रत्याख्यानम् नास्य विरतमस्तीत्यविरतः - सावध प्रवृतियों से जो विरत नहीं है उसे अविरत कहते हैं । जो व्रतों को जानता नहीं है, न स्वीकार करता है और न उनके पालन करने का प्रयत्न करता है वह अज्ञान, अनभ्युपगम और अयतना से अविरत है। कृतकरण । चरमे च स्थितिखंडे उत्कीर्ण सत्यसौक्षपकः कृतकरण इत्युच्यते। – सम्यक्त्व मोहनीय के अंतिम स्थितिखंड को क्षपाने वाले क्षपक को कृतकरण कहते हैं। किट्टीकरण किट्टियो नाम पूर्वस्पर्धकापूर्वस्पर्धकेभ्यो वर्गणा गृहीत्वा तासामनन्तगुणहीनरसतामापद्य वृहदन्तरालतया य द्रव्यवस्थापनं – किट्टी कृश करना, अर्थात् पूर्व स्पर्धक एवं अपूर्व स्पर्धकों से वर्गणाओं को ग्रहण करके और उनके रस को अनन्तगुणहीन करके अविभाग प्रतिच्छेदों के अन्तराल में स्थापित करने को किट्टीकरण कहते हैं । किट्टी के वेदन अनुभव करने के काल को किट्टीवेदनकाल कहते हैं। अश्वकर्णकरण घोड़े के कान के समान मूल में चौड़ा और उत्तरोत्तर घटने के समान जिस करण में संज्वलन क्रोध से लेकर लोभपर्यन्त का अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणहीन होता जाता है, उस करण को अश्वकर्णकरण कहते हैं। संप्राप्तोदयः यत्कर्मदलिकं कालप्राप्तं सत् अनुभूयते स संप्राप्त्युदयः - उदय की कारणभूत क्षेत्रादि सामग्री के होने पर कालक्रम से कर्मदलिक का उदय में आना संप्राप्तोदय कहलाता है। असंप्राप्तोदयः यत्पुनरकालप्राप्तं कर्मदलिकमुदीरणा प्रयोगेण वीर्यविशेष - संज्ञितेन समाकृष्य काल प्राप्तेन दलिकेन सहानुभूयते सोऽसंप्राप्त्युदयः - वीर्यविशेष रूप उदीरणा करण से अकाल प्राप्त कर्मदलिक को आकर्षित कर कालप्राप्त दलिक के साथ अनुभव करना असंप्राप्तोदय कहलाता है। इसी का अपर नाम उदीरणा है।

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