________________ दीप से दीप साधुमार्ग की परम्परा अनादि-अविच्छिन्न है। आचार की साधुत्व की प्राण-सत्ता एवं कसौटी है, अत: वही साधु-मार्ग की धुरी है। धुरी ध्वस्त हो जाए तो रथ पर झण्डीपताकाएं सजाकर तथा उसके चक्कों पर पॉलिश करके कुछ समय के लिए एक चकाचौंध भले ही उपस्थित कर दी जाय, उसे गतिमान नहीं बनाया जा सकता। वन्द्य विभूति आ. श्री हुक्मीचन्दजी म.सा. ने 'सम्यक ज्ञान सम्मत क्रिया' का उद्घोष करके आचार की सर्वोपरिता का सन्देश दिया। इस आचार क्रान्ति ने जिनशासन-परम्परा में प्राण ऊर्जा का संचार किया। अगले चरण में ज्योर्तिधर जवाहराचार्य ने आगमिक विवेचन की तैजस छैनी से कल्पित सिद्धान्तों की अवान्तर प? की छील-कांट कर 'सम्यक ज्ञान सम्यक क्रिया' को विशुद्ध शिल्प में तराश दिया। आगे चलकर श्री गणेशाचार्य ने इस विशुद्ध शिल्प के साक्ष्य में 'शान्ति-क्रान्ति का भी अभियान चलाया। कालान्तर में समता विभूति आचार्य श्री नानेश के सम्यक निर्देशन में शान्ति-क्रान्ति का रथ उत्तरोत्तर आगे बढ़ता रहा। उसी शान्तिमान रथ के अश्वों की वलगायें अब परमागम रहस्य ज्ञाता आचार्य श्री रामेश के समक्ष हाथों में है। युग पर आश्वासन की सात्विक आभा फैलती जा रही है। विश्वास हिलकोरें लेने लगा है कि सात्विक साध्वाचार का लोप नहीं होगा। अंधकार छंटता और छूटता जा रहा है। दीप से दीप जलते जा रहे हैं। यह पुस्तक क्रांति-श्रृंखला में ही एक पावन लौ है।