Book Title: Karm Prakruti Part 02
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 519
________________ परिशिष्ट ] [ ४८५ बंधोत्पत्तिक - बंधादुत्पत्तिर्येषां तानि बंधोत्पत्तिकानि – बंध से जिसकी उत्पत्ति है, उसे बंधोत्पत्तिक कहते हैं। हतोत्पत्तिक उद्वर्तनापवर्तनाकरणवशतो वृद्धिहानिभ्यामन्यथाऽन्यथा यान्यनुभागस्थानानि वैचित्र्यभाञ्जि भवन्ति तानि हतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते – उद्वर्तना अपवर्तनाकरण से वृद्धि हानि के द्वारा जो अनुभागस्थान अन्यथा अन्यथा रूप में अर्थात् विचित्र रूप में हो जाते हैं, वे हतोत्पत्तिक कहलाते हैं। हतहतोत्पत्तिक हत्तं उद्वर्तनापवर्तनाभ्यां घाते सति भूयोऽपि हतान् स्थितिघातेन रसघातेन वा घातादुत्पत्तियैषां तानि हतहतोत्पत्तिकानि - उद्वर्तना - अपवर्तना के द्वारा घात होने पर पुनः स्थितिघात और रसघात से घात द्वारा जिनकी उत्पत्ति होती है, उन्हें हतहतोत्पत्तिक कहते हैं। निषेक प्रतिसमयं बहु हीन हीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थ रचना निधत्तमपीह निषेक उच्यतेविवक्षित कर्म की स्थिति में से अबाधाकाल को घटा देने पर अनुभव करने के लिये प्रति समय हीन हीनतर क्रम से कर्मदलिकों की जो रचना विशेष होती है, उसे निषेक कहते हैं। संवेध - परस्परमेककालमागमाऽविरोधेनमीलनं सम्बन्धाः (संवेधः) - आगम से अविरुद्ध कर्म प्रकृतियों का परस्पर एक काल में संबंध करने को संवेध कहते हैं। 00

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