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[ कर्मप्रकृति
शब्दार्थ – मिच्छत्ते – मिथ्यात्व को, मीसम्मि – मिश्र में, य - और, संपक्खित्तम्मिप्रक्षिप्त करते समय, मीस - मिश्र को, सुद्धाणं - सम्यक्त्व में, वरिसवरस्स – नपुंसकवेद का, उ - और, ईसाणगस्स - ईशानस्वर्ग में गये हुए के, चरमम्मि - चरम, समयम्मि – समय में।
गाथार्थ – मिथ्यात्व को मिश्र में और मिश्र को सम्यक्त्व में सर्वसंक्रम द्वारा प्रक्षिप्त करते समय मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। नपुंसक वेद का उत्कृष्ट प्रदेश सत्व ईशानस्वर्ग में गये हुए जीव के चरम समय में पाया जाता है।
विशेषार्थ – पूर्व में कहा गया स्वरूपवाला, ऐसा वह गुणितकांश नारक सप्तम पृथ्वी से निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ और वहां पर भी अन्तर्मुहूर्त रहकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां सम्यक्त्व को प्राप्त कर अनन्तानुबंधीचतुष्क, दर्शनमोहत्रिक को सम्यग्मिथ्यात्व में सर्वसंक्रमण के द्वारा संक्रान्त करता है, उस समय उसके सम्यक्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है तथा उस समय में सम्यक्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेश सत्व होता है। सारांश यह है कि मिथ्यात्व
और मिश्र को यथाक्रम से मिश्र और सम्यक्त्व में प्रक्षिप्त करने पर उन दोनों – मिश्र सम्यग्मिथ्यात्व का और शुद्ध-सम्यक्त्व मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है।
____ 'वरिसवरस्स' इत्यादि अर्थात् वही गुणितकर्मांश नारकी वहां से निकलकर और तिर्यंच होकर ईशानस्वर्ग का कोई देव हुआ और वह भी अति संक्लिष्ट होकर बार-बार नपुंसकवेद को बांधता है, तब अपने भव के अंतिम समय में वर्तमान उस देव के वर्षवर अर्थात नपुंसकवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। तथा -
ईसाणे पूरित्ता, नपुंसगं तो असखंवासा (सी) सु।
पल्लासंखिय भागेण, पूरिए इत्थिवेयस्स ॥ २९॥ शब्दार्थ – ईसाणे – ईशानस्वर्ग में, पूरित्ता – पूरित कर, नपुंसगं – नपुंसकवेद को, तो - वहां से, असंखवासासु – असंख्यात, वर्षायुष्क भव में, पल्लासंखिय भागेण – पल्य के असंख्यातवें भाग से, पूरिए – पूरितकर, इत्थिवेयस्स - स्त्रीवेद का।
गाथार्थ – ईशानस्वर्ग में नपुंसकवेद को पूरित कर और वहां से संख्यातवर्षायुष्क और फिर असंख्यातवर्षायुष्क भव में उत्पन्न होकर पल्य के असंख्यातवें भाग से स्त्रीवेद को पूरित करने पर स्त्रीवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है।
विशेषार्थ - ईशान देवलोक में उक्त प्रकार से नपुंसक वेद को पूरकर अर्थात् नपुंसकवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके वहां से संख्यातवर्षायुष्क वाले कर्मभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न होकर