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गादहिगे पढमो, एगाईऊणगम्मि बिइओउ । तत्तियमेत्तो, तईओ, पढमे समए अवत्तव्वो ॥५२॥ एक आदि से अधिक, पढमो
शब्दार्थ गादहिगे उणगम्मि एक आदि से हीन, बिइओ - द्वितीय (अल्पतर) उ ही यह, तईओ - तृतीय ( अवस्थित ), पढमे समए पहले समय में, अवत्तव्वो थ एक आदि प्रकृति के अधिक बंधादि होने पर प्रथम (भूयस्कार) होता है । एकादि प्रकृति से हीन बंधादि होने पर द्वितीय (अल्पतर), उतना ही बंध आदि होना यह तृतीय ( अवस्थित ) और बंधादि का विच्छेद होने के अनन्तर पुनः बंधादि होने पर प्रथम समय में अवक्तव्य विकल्प होता है ।
विशेषार्थ
यहां बंध का आश्रय करके भूयस्कार आदि विकल्पों का विचार किया
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[ कर्मप्रकृति
प्रथम (भूयस्कार) एगाई
और, तत्तियमेत्तो
उतना
अवक्तव्य ।
जाता हैं ।
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बंध दो प्रकार का है मूल प्रकृतियों का बंध और उत्तर प्रकृतियों का बंध। इनमें से मूल प्रकृतियों का बंध कदाचित् आठ का होता है, कदाचित् सात का, कदाचित् छह का और कदाचित् एक का भी होता है। इनमें जब अल्प प्रकृतियों को बांधकर जीव परिणाम विशेष से बहुत प्रकृतियों को बांधता है, जैसे सात को बांधकर आठ को बांधता है, अथवा छह या एक को बांधकर सात को बांधता है तब वह बंध भूयस्कर कहलाता है कहा भी है १ एगादहिगे पढमो, अर्थात् एक आदि अधिक यानि एक, दो, तीन आदि प्रकृतियों से अधिक बंध होने पर प्रथम प्रकार अर्थात भूयस्कारबंध होता है । जब बहुत प्रकृतियों को बांधता हुआ जीव परिणाम विशेष से अल्प प्रकृतियों को बांधना प्रारम्भ करता है, जैसे आठ को बांधकर सात को बांधता है, अथवा सात को बांधकर छः को बांधता है, अथवा छः को बांधकर एक को बांधता है, तब वह बंध अल्पतर कहलाता है । जैसा कि कहा है 'गाई उणगम्मि बिइओ उ' एक, दो, तीन आदि प्रकृतियों से कम बंध होने पर दूसरा प्रकार अर्थात् अल्पतर बंध, द्वितीयादि समयों में उतने ही प्रमाण से प्रवर्तमान रहता है तब वह अवस्थित बंध कहा जाता है। जैसा कि कहा है 'ततियमेतो तइओ' अर्थात् तन्मात्र प्रमाण वाला बंध तीसरा अवस्थित बंध है ।
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ये तीनों प्रकार के बंध मूल प्रकृतियों के सम्भव हैं, किन्तु चौथा अवक्तव्य-बंध सम्भव नहीं है। क्योंकि सभी मूल प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने पर पुनः उनका बंध सम्भव नहीं है, जिससे चौथा अवक्तव्य बंध हो । इसलिए यह अवक्तव्य बंध उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा जानना