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परिशिष्ट ]
विशुद्धि अनन्तगुणी है, जिसे दो के अंक से बताया है। इस प्रकार एक एक विशुद्धिस्थान अनन्त गुणे अनन्त गुणे दोनों जीवों की अपेक्षा तब तक जानना यावत् जघन्य विशुद्धि का चरम समय आता है। जिसे प्रारूप में ३- १२, ४- १३, ५- १४ आदि अंक १०० पर्यन्त लेना । अर्थात् असत् कल्पना से १०० का अंक जघन्य विशुद्धि का चरम समय है । उसके समक्ष ९ ' अंक उत्कृष्ट विशुद्धि का स्थान है। उसके बाद चरम को अभिव्याप्त करके जो जो अनुक्त विशुद्धिस्थान हैं, उन्हें क्रमशः अनन्त गुण अनन्त उत्कृष्ट विशुद्धिपर्यन्त कहना, जिसे प्रारूप में ९२ से १०० के अंक तक बताया है ।
यहां यथाप्रवृत्तकरण समाप्त हुआ । इसे पूर्वप्रवृत्त भी कहते हैं क्योंकि यह अन्य करणों से सर्वप्रथम होता है । इस यथाप्रवृत्तकरण में स्थितिघात, रसघात अथवा गुणश्रेणी आदि न होकर केवल विशुद्धि ही अनन्त गुणी अनन्त गुणी होती है। इन जीवों के अप्रशस्त कर्म का स्थितिबंध द्विस्थानक ही होता है और शुभ प्रकृतियों का चतुस्थानक । एक स्थितिबंध के पूर्ण होने पर अन्य स्थिति को पल्योपम के संख्येय भाग न्यून बांधता है ।