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परिशिष्ट ]
करण
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ग्रंथागत कतिपय विशिष्ट पारिभाषिक लक्षण
करणाः परिणामाः
जीव के शुभ - अशुभ परिणामों भावों को करण कहते हैं ।
बंधनकरण – बध्यतेऽष्ट प्रकारं कर्म येन तद् बंधनं जिस (वीर्यविशेष) के द्वारा ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म बांधे जायें, उसे बंधनकरण कहते हैं
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जिस आत्म
बध्यतेऽनेनात्मेति बंधनं जिसके द्वारा आत्मा के साथ कर्मों का बंध हो, वह बंधनकरण है । संक्रमणकरण - संक्रम्यतेऽन्यप्रकृत्यादिरूपतया व्यवस्थप्यते येन तत्संक्रमणं परिणाम के द्वारा अन्य प्रकृत्यादिचतुष्क को अन्य प्रकृत्यादिचतुष्क रूप में परिणत किया जाता है, उसे
संक्रमणकरण कहते हैं ।
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परप्रकृतिरूप परिणमनं संक्रमणम् - जिस वीर्य विशेष के द्वारा जो प्रकृति पूर्व में बंधी थी उसका अन्य प्रकृतिरूप परिणमन हो जाना, संक्रमणकरण है ।
उद्वर्तनाकरण
उद्वर्त्यते प्राबल्येन प्रभूति क्रियते स्थित्यादि यया जीववीर्यविशेषपरिणत्या सोद्वर्तना जिस वीर्य विशेष रूप परिणति के द्वारा कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि की जाती है, उद्वर्तनाकरण है ।
वह
कम्मप्पदेसट्ठिदि उवट्ठावणमुक्कड्डणा - कर्मप्रदेशों की स्थिति (व अनुभाग) को बढ़ाना उत्कर्षण (उद्वर्तन) कहलाता है ।
अपवर्तनाकरण
अपवर्त्यतेह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया साऽपवर्तना - जिस वीर्यविशेष परिणति के द्वारा कर्म की स्थिति (व अनुभाग) अल्प-हीन किया जाता है, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं ।
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स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणणाम — स्थिति और अनुभाग की हानि अर्थात् पूर्व में जो स्थिति और अनुभाग बांधा था उससे कम करना अपकर्षण है ।
उदीरणाकरण
अनुदयप्राप्तं (उदयाप्राप्तं ) सत्कर्मदलिकमुदीर्यत उदयावलिकायां प्रवेश्यते यया सोदीरणा - जिस वीर्य विशेष परिणति के द्वारा उदयकाल को प्राप्त नहीं हुए दलिक को उदीस्ति