Book Title: Karm Prakruti Part 02
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 513
________________ परिशिष्ट ] [ ४७९ यथाप्रवृत्त संक्रम अहापवत्तसंकमोणाम संसारत्थाणं जीवाणं बंधणजोगाणं कम्माणं बज्झमाणाणं अबज्झमाणाणं वा थोवतो थोवं बहुगाओ बहुगं बज्झमाणीसु य संकमणं - संसारी जीवों के ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का उनके बंध के होने पर तथा स्व स्व भवबंध योग्य परावर्तमान प्रकृतियों का बंध या अबंध की दशा में भी जो प्रदेशसंक्रम - परप्रकृति रूप-परिणमन होता है, उसे यथाप्रवृत्तसंक्रम कहा जाता है अर्थात् अपने बंध की संभावना रहने पर जो बंधप्रकृतियों का प्रदेशसंक्रम पर प्रकृतिरूप परिणमन होता है उसे यथाप्रवृत्तसंक्रम कहा जाता है। (दिगम्बर कार्मग्रान्थिक इसे अधःप्रवृत्तसंक्रम कहते हैं)। गुण संक्रम प्रतिसमयमसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद्गुणसंक्रमणनाम - जहां पर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणि क्रम से परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणत हों वह गुणसंक्रमण है। गुण संक्रमण अप्रमत्त संयत गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में होता है और विशुद्धि के वश प्रति समय असंख्यात गुणित वृद्धि के क्रम से अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के द्रव्य को शुभ प्रकृतियों में दिया जाता है। सर्वसंक्रम चरमसमये यत् परप्रकृतिषु शेष सर्वदलिकं प्रक्षिप्यते स सर्वसंक्रम - (गुणसंक्रमण के पश्चात्) शेष रहे हुए कर्म दलिकों का अंतिम समय में जो पर प्रकृतियों में संक्रम किया जाता है, वह सर्व संक्रम कहलाता है। स्तिबुक संक्रम ____ अनुदीर्णाया अनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिकं सजातीय प्रकृतावुदयप्राप्तायां समानकालस्थितौ संक्रमय्य चानुभवति स स्तिबुकसंक्रमः - अनुदीर्ण प्रकृति के दलिकों को समान स्थिति वाली उदय प्राप्त प्रकृति में संक्रमित करके जो अनुभव किया जाता है, उसे स्तिबुक संक्रम कहते हैं। जैसे उदय प्राप्त मनुष्य गति में अन्य अनुदय प्राप्त गतियों के कर्म दलिकों को संक्रान्त करके भोग लेना अथवा उदयमान एकेन्द्रिय जाति में अनुदीर्ण शेष जातियों के कर्म दलिकों का संक्रमण होना।

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