Book Title: Karm Prakruti Part 02
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 512
________________ ४७८ ] [ कर्मप्रकृति अर्थकण्डक जघन्य अबाधा से रहित उत्कृष्ट अबाधा से जघन्य स्थिति हीन उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो भाग प्राप्त होता है, उसे अर्थकण्डक कहते हैं। संक्रमण सो संकमोत्ति वुच्चइ जं बंधणपरिणओ पओगेणं। पगयंतरतत्थदलियं परिणमयइ तयणुभावे जं॥ प्रयोग अर्थात् वीर्य विशेष से बंधक जीव जिस प्रकृति को अन्य प्रकृतिगत दलिक के रूप में परिणमाता है, वह संक्रम कहलाता है। उद्वलना संक्रम घनलाभान्वितस्याल्पदलस्योत्तारणं उत्किरणं तदेवं च उद्वलनं व्यपदिश्यते - अति सघन कर्म दलिकों से युक्त कर्म प्रकृतियों के दलिकों का उद्वलन अथवा उत्कीरणया उत्खनन करने को उद्वलना संक्रम कहते हैं। अथवा - करणपरिणामेन बिना कर्मपरमाणनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वलन संक्रमणम् - अध:करण (यथाप्रवृत्तकरण) आदि परिणामों के बिना रस्सी के उकेलने के समान कर्म परमाणुओं के पर प्रकृति रूप से निक्षेपण को उद्वलन संक्रम कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि - जिस प्रकार अनेक तंतुओं में बद्ध रस्सी में से तंतुओं को निकाला जाये किंवा बिखेर दिये जाने पर रस्सी के तन्तु ढीले पड़ जाते हैं और उसकी मजबूती भी कम पड़ जाती है। इसी प्रकार उद्वलना संक्रमण से अधिक स्थिति वाले और तीव्र रस वाले दलिक उत्कीर्ण होते हुये अल्प स्थिति वाले और अल्प रस वाले हो जाते हैं। विध्यात संक्रम , विध्यात विशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभाग कण्डक गुणश्रेष्यादि परिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तना विध्यात संक्रमणणाम - मंद विशुद्धि वाले जीव की स्थिति अनुभाग के घटाने रूप भूतकालीन स्थिति कंडक और अनुभाग कंडक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विध्यातसंक्रमण है। - जिन प्रकृतियों का गुणप्रत्यय और भवप्रत्यय से बंध नहीं होता है उनमें विध्यात संक्रमण की प्रवृत्ति होती है और यह प्रायः यथाप्रवृत्त संक्रम के पश्चात होता है।

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