Book Title: Karm Prakruti Part 02
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

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Page 509
________________ परिशिष्ट ] [ ४७५ वीर्यलब्धि आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च यः। उत्साहो वीर्यमितितत्कीर्तितं मुनिपुंगवैः॥ निर्विकार आत्मा का जो उत्साह या कृतकृत्यत्व रूप बुद्धि, उसे मुनिपुंगव वीर्य कहते हैं। अथवा-स्वरूपनिवर्तन सामर्थ्य रूप वीर्य शक्तिस्वरूप (आत्मस्वरूप) रचना की सामर्थ्य-शक्ति को वीर्य कहते हैं और विशुद्धि से उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की शक्ति को लब्धि कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से छद्मस्थों को तथा सर्वक्षय से केवलियों को वीर्यलब्धि प्राप्त होती है। योग एतच्चाभिसन्धिजमनभिसन्धिजं वा वीर्यमवश्यं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्दरूपक्रियासहितं, योग संज्ञमप्येतदेव - अभिसंधिज अनभिसंधिज वीर्य विशेष से यथासंभव सूक्ष्म बादर परिस्पन्दन रूप क्रिया का होना योग कहलाता है। मणसा वयसा काएण वा वि जुत्तस्स विरय परिणामो। जिहप्पाणिजोगो जोगो ति जिणेहिं णिदिट्ठो॥ मन, वचन, काय से युक्ज जीव का जो वीर्य परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग, उसे योग कहते हैं। जोगो विरियं थामो उच्छाहपरिक्कमो तहा चिट्ठा। सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पजाया॥ योग वीर्य, स्थाम, उच्छवास, पराक्रम, चेष्ठा, शक्ति सामर्थ्य ये सब योग के पर्यायवाची नाम हैं। अविभाग यस्याशंस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन विभागः कर्तुं न शक्यते सोंऽशोऽविभागउच्यते - जिस अंश का प्रज्ञा-बुद्धि से छेदन करते हुये और विभाग नहीं किया जा सके, ऐसे अंतिम अविभागी अंश को अविभाग कहते हैं। प्रतर घनीकृत लोक की एक प्रदेश प्रमाण मोटी और सात राजु लंबी और सात राजु चौड़ी परत को प्रतर कहते हैं।

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