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[ कर्मप्रकृति
ही है। उसमें से संख्यात भाग बीत जाने पर एक भाग शेष रहता है तब अनन्तानुबंधी कषाय के एक आवलि प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर शेष निषेकों का अन्तरकरण किया जाता है। जिन अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है, उन्हें वहां से लेकर बंधने वाली अन्य प्रकृतियों में स्थापित कर दिया है । अन्तर प्रारम्भ होने पर दूसरे समय में अनन्तानुबंधी कषाय के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों का उपशम किया जाता है पहले समय में थोड़े दलिकों का उपशम किया जाता है, दूसरे समय में उससे असंख्यात गुणे दलिकों का, तीसरे समय में उससे भी असंख्यात गुणे दलिकों का उपशम किया जाता है। अन्तर्मुहूर्त काल तक इसी तरह असंख्यात गुणे असंख्यात गुणे दलिकों का प्रति समय उपशम किया जाता है। जिससे इतने समय में सम्पूर्ण अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम हो जाता है। जैसे धूलि पर पानी डाल कर कूट देने से वह दब जाती है और फिर हवा आदि से उड़ नहीं सकती है, उसी तरह कर्मरज भी विशुद्धि रूपी जल द्वारा सींच कर अनिवृत्तिकरण रूपी दुरमुट से कूट दिये जाने पर उदय, उदीरणा, निधत्ति आदि करणों के अयोग्य हो जाती है। इसे ही अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम कहते हैं ।
७. उपशमना के भेदों की व्याख्या
( गाथा १ से संबंधित )
उपशमनाकरण में उपशमना के दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं.
१. करणकृत उपशमना, २ . अकरणकृत उपशमना। इन दोनों में अकरणकृत उपशमना के पुनः दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं १. अकरणकृत उपशमना, २. अनुदीर्णोयशमना ।
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अकरणकृत उपशमना के उभय भेदों का नामांकन तो ग्रन्थकार एवं टीकाकार दोनों ने ही किया है। किन्तु इसकी व्याख्या उपलब्ध नहीं होने से, इसकी व्याख्या में कुशल अनुयोगधरों को नमस्कार करते हुये इस प्रकरण की व्याख्या छोड़ दी गई है।
इन दोनों उपशमनाओं की संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार से समझी जा सकती है
१. अनुदीर्णोपशमना - कुछ एक आत्माएं उदय में आये हुये कर्मों का उपभोग करती इतनी अभ्यस्त बन जाती हैं कि जिससे प्रभूत कर्मों के उदय में आने पर भी अभ्यासबशात् अज्ञानतापूर्वक इन कष्टों को झेलने में समर्थ हो जाती हैं। जैसे एक व्यक्ति की प्रतिदिन पिटाई की जाती है तब वह उस पिटाईजनित वेदना से अभ्यस्त हो जाता है, तत्पश्चात् उसकी कितनी ही पिटाई की जाये तथापि उस पिटाईजनित वेदना - दुःख रूप वेदन प्रायः उस व्यक्ति के बंद सा हो जाता है । यही अवस्था अनुदीर्णोपशमना वाली आत्माओं में होती है। उस अवस्था में वे आत्माएं पाप कर्मों को वेदते वेदते अत्यधिक अरुचि का अनुभव