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[ कर्मप्रकृति ५. विषम चतुरस्र स्थापना में यथाप्रवृत्तकरण के चरम स्थान की अपेक्षा अपूर्वकरण के प्रथम स्थान के विशुद्धिस्थानों की अधिकता यथाप्रवृत्तकरण के अंतिम स्थान से नीचे के स्थान में शून्यों की अधिकता द्वारा प्रदर्शित की है। इसी प्रकार द्वितीयादि स्थानों में शून्यों की अधिकता उत्तरोत्तर विशेषाधिकता को प्रदर्शित करती है।
६. अपूर्वकरण की उत्तरोत्तर चरम समय तक की विशेषाधिकता असत्कल्पना से पांच पंक्तियों से बताई गई है
२. मुक्तावली का प्रारूप और स्पष्टीकरण
अनिवत्तिकरण के अध्यवसाय स्थान
यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण के अध्यवसायस्थानों के ऊपर अनिवृत्तिकरण के अध्यवसायस्थान अनन्त गुणवृद्ध हैं । इस प्रकार अनिवृत्तिकरण प्रतिसमय अनन्त गुणवृद्ध हैं । इस प्रकार अनिवृत्तिकरण में प्रति समय अनन्त गुणवृद्धि जानना चाहिये। मुक्तावली के मोती अध्यवसाय के द्योतक हैं । मुक्तावली के मोती जो सबसे छोटा प्रतीत होता है। वह पूर्व के दो करणों की अपेक्षा अनन्त गुणवृद्ध अध्यवसायों का द्योतक है। आगे के सभी मोती आकार से पूर्व की अपेक्षा प्रवर्द्धमान आकार वाले बताये हैं । इससे यह स्पष्ट किया है कि पूर्व के स्थितिस्थानों के आगे के स्थितिस्थान प्रतिसमय अनन्तगुणवृद्ध जानना चाहिये।
३. षट्स्थानपतित का प्रारूप और स्पष्टीकरण
(उपशमनाकरण गा. १०,११ के सन्दर्भ में) कल्पना से दो पुरुष युगपद करण को स्वीकार करते हैं – जिसमें एक तो सर्वजघन्य श्रेणी से स्वीकार करता है और दूसरा सर्वोत्कष्ट श्रेणी से।
- प्रथम जीव के प्रथम समय में सर्व जघन्य विशुद्धि सर्वस्तोक है, जिसे प्रारूप में १ का अंक देकर बताया है। उससे आगे के द्वितीय विशुद्धिस्थान यथाप्रवृत्तकरण के संख्येय भाग तक अनन्त गुणे कहना चाहिये। जिसे प्रारूप में २ से ९ के अंक पर्यन्त जानना।
इसके बाद प्रथम समय में द्वितीय जीव के उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान अनन्त गुण है जिसे प्रारूप में ९ के बाद के सामने १ के अंक से बताया है। जिस जघन्य विशुद्धिस्थिति स्थान से निवृत्त हुये हैं, उससे उपरितन की विशुद्धि अनन्त गुणी है, जिसे दस के अंक से बताया है। इससे द्वितीय समय की उत्कृष्ट