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[ कर्मप्रकृति
उदीरणाकरण गाथा ८४ के सन्दर्भ में "प्रभूतं ही दुःखं अनुभवन् प्रभूता पुद्गलान् परिसाटयति" प्रभूत दुःख का अनुभव करती हुई आत्मा प्रभूत पुद्गलों का परिसाटन निर्जरा करती है।
टीकान्तर्गत आया हुआ यह वाक्य सामान्य स्थिति का प्रतिपादन करता है किन्तु विशेष दृष्टि की अपेक्षा से अनुभूति में अन्तर आ जाता है। सम्यक्त्वी आत्मा समभावपूर्वक प्रभूत कर्मवर्गणा के उदय आने पर भी दुःखानुभव अत्यल्प मात्रा में करती है। विशिष्टात्मा तो दुःखानुभव नहींवत् करती है। किन्तु अज्ञानी जीव उतने कर्मवर्गणाओं के उदय आने की अवस्था में अत्यधिक दुःख का अनुभव करती है। इसका मूल हेतु सम्यक्त्व, मिथ्यात्व है।
मिथ्यात्वावस्था में रहती हुई आत्मा अत्यधिक दुःख का अनुभव करने पर भी अत्यल्प कर्म की निर्जरा करती है। प्रभूत कर्मों का बंधन कर लेती है। किन्तु सम्यक्त्व अवस्था में रहती हुई आत्मा अत्यल्प दुःख का अनुभव करती हुई भी अत्यधिक कर्मों की निर्जरा करती है।