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[ कर्मप्रकृति
जानना चाहिये, अन्य प्रकार से नहीं।
बंधोदीरणसंकम - संतुदयाणं जहन्नगाईहिं।
संवेहो पगइ ठिई, अणुभागपएसओ नेओ ॥ ५४॥ शब्दार्थ – बंधोदीरणसंकम – बंध उदीरण और संक्रम, संतुदयाणं - सत्ता और उदय का, जहन्नगाईहिं - जघन्य आदि विकल्पों के द्वारा, संवेहो - सवेध, पगइठिई अणुभागपएसओ - प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा, नेओ - जानना चाहिये।
गाथार्थ – बंध उदीरणा, संक्रमण, सत्ता और उदय का प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा जघन्य आदि के द्वारा संवेघ जानना चाहिये।
विशेषार्थ – बंध उदीरणा, संक्रमण सत्व और उदय इन पांच पदार्थों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का आश्रय करके जघन्य, अजघन्य उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट पदों के द्वारा संवेध अर्थात परस्पर एक समय में अविरोध रूप से संमिलन जान लेना चाहिये, संवेधः - परस्पर - मेककालमागमाविरोधेनमीलनं। जैसे - ज्ञानावरणकर्म का जघन्य स्थितिबंध होने पर जघन्य अनुभागबंध होता है, जघन्य प्रदेशबंध होता है और अजघन्य स्थिति उदीरणा, स्थितिसंक्रम, स्थितिसत्व
और स्थिति उदय होता है इत्यादि रूप से इन पांचों पदार्थो का परस्पर सम्बन्ध एक समय में मिलाने रूप संबंध पूर्वापर संबंध को सम्यक् प्रकार से विचार कर जान लेना चाहिये।
इस प्रकार सत्ता का विवेचन जानना चाहिये और इसके वर्णन के साथ ही ग्रंथ के प्रारम्भ में जो – कम्मट्ठगस्स करणट्ठगुदयसंताणि वोच्छामि अर्थात् मैं आठ कर्मो सम्बन्धी आठ करणों को और उदय तथा सत्ता को कहूंगा – प्रतिज्ञा की थी उसका भी पूर्णरूपेण समर्थन किया जा चुका
उपसंहार
अब अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के पश्चात् ग्रथकार ग्रंथ का उपसंहार करने के प्रसंग में सर्वप्रथम इस कर्मप्रकृति करण के परिज्ञान से होने वाली विशिष्ट फलप्राप्ति का कथन करते हैं
करणोदयसंतविउ, तन्निजरकरण - संजमुजोगा।
कम्मट्ठगुदयनिट्ठा- जणियमणिटुं सुहमुवेति ॥ ५५॥ शब्दार्थ – करणोदयसंतविउ - करण उदय और सत्ता को जानने वाला,
१.संवेध का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।