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सत्ताप्रकरण ]
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तन्निजरकरणसंजमुज्जोगा – उनकी निर्जरा करने के लिये संयम में तत्पर, कम्मट्ठगुदयनिट्ठाअष्टकर्मों के उदय की समाप्ति, जणियमणिटुं – उत्पन्न मनोवांछित, सुहुमुवेंति - सुख को प्राप्त करता है।
गाथार्थ – करण, उदय और सत्ता को जानने वाला उनकी निर्जरा करने के लिये संयम में तत्पर अष्ट कर्मों के उदय की समाप्ति से उत्पन्न मनोवांछित सुख को प्राप्त करता है।
विशेषार्थ – 'करणोदय' इत्यादि अर्थात् जिनका स्वरूप पूर्व में कहा गया है, उन आठों करणों के तथा उदय और सत्व के सम्यक् परिज्ञान से युक्त तथा 'तनिज्जरकरण संजमुज्जोगा त्ति' अर्थात् उन करणों तथा कर्मों के उदय और सत्ता की निर्जरा करने के लिये संयम में जो उद्यत हैं वे जीव आठों कर्मों के उदय की अर्थात् बंध उदय और सत्ता की निष्ठा यानी क्षय से जनित उत्पन्न हुए मन को इष्ट अथवा अणिटुं अर्थात् जिसका अंत नहीं है ऐसे अन्तरहित अनन्त मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं।
___इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को इस प्रकरण का अवश्य ही निरन्तर अभ्यास करना चाहिये और अभ्यास करके यथाशक्ति संयम के मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिये और प्रवृत्त होते हुए संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप कुमार्ग के परिहार में प्रयत्न करना चाहिये।
अब आचार्य अपनी उद्धतता का परिहार करते हुए और अन्य बहुश्रुत ज्ञानी आचार्यों से इस प्रकरण के अर्थ की पर्यालोचना के विषय में प्रार्थना करते हुए तथा बुद्धिमान शिष्यों को इस प्रकरण के विषय में उपादेय बुद्धि उत्पन्न करने के लिये इस प्रकरण की परम्परा सर्वज्ञमूलक है यह प्रगट करते हैं।
इय कम्मप्पगडीओ, जहासुयं नीयमप्पमइणा वि ।
सोहियणाभोगकयं कहंतु वरदिट्ठिवायन्नू॥५६॥ शब्दार्थ – इय – इस प्रकार, कम्मप्पगडीओ – कर्मप्रकृति प्राभृत से, जहासुयं - जैसा सुना, नीय-मप्प-मइणा – अल्पमति के द्वारा लेकर, वि - भी, सोहियणाभोगकयं - अनाभोग (अनुपयोग) से कहा गया हो तो उसको शुद्ध करके, कहतुं – कथन करें, वरदिट्ठिवायन्नूउत्तम दृष्टिवाद के ज्ञाता।
गाथार्थ - इस प्रकार मुझ अल्पज्ञ ने अपनी अल्पमति के द्वारा जैसा भी गुरुमुख से सुना है, उसी प्रकार से कर्मप्रकृतिप्राभृत में से इस प्रकरण की रचना की है। इसमें जो अनुपयोग से कहा गया हो तो उत्तम दृष्टिवाद के ज्ञाता उसको शुद्ध करके कथन करें। अथवा -