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परिशिष्ट ]
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१ - उद्वर्तना संबंधी कुछ नियम १. बंधन और उद्वर्तना दोनों में जिस जिस प्रकृति का जहां विच्छेद होता है वहीं तक उस उस प्रकृति का बंध और उद्वर्तन होता है।
२. संक्रमण में जिस प्रकृति के परमाणु उद्वर्तन रूप करते हैं, वे अपने काल में आवलिका काल पर्यन्त तो अवस्थित ही रहते हैं तत्पश्चात् भजनीय हैं । अर्थात् अवस्थित भी रहें और स्थिति आदि की वृद्धि हानि आदि रूप भी हो सकते है।
३. उद्वर्तना होने पर अनुभागस्थान के अविभाग प्रतिच्छेदों की वृद्धि नहीं होती हैं, क्योंकि बंध के बिना उसका उद्वर्तन नहीं बन सकता है।
४. परमाणुओं की अधिकता या अल्पता अनुभाग की वृद्धि और हानि का कारण नहीं है। अर्थात् यदि परमाणु अधिक हों तो अनुभाग भी अधिक हो और यदि परमाणु कम हों तो अनुभाग भी कम हो ऐसा नहीं समझना चाहिये।
५. उद्वर्तन बंध का अनुसरण करने वाला होता है, इसलिये उसमें दूसरे प्रकार से प्रदेशों की रचना नहीं बन सकती है।
६. जिस समयप्रबद्ध की स्थिति वर्तमान में बांधे हुए कर्म की अंतिम स्थिति के समान है, उस समयप्रबद्ध का वर्तमान में बांधे हुए कर्म की अंतिम स्थिति तक उद्वर्तन किया जाता है।
७. उदयावलिका की स्थिति के प्रदेशों का उद्वर्तन नहीं किया जाता है।
८. उदयावलिका के बाहर की सभी स्थितियों का भी उद्वर्तन नहीं किया जाता है किन्तु चरम स्थिति के आवलिका के असंख्यातवें भाग को अतीत्थापना रूप से स्थापित करके आवलिका के असंख्यात बहु भाग का उद्वर्तन होता है, क्योंकि इससे ऊपर स्थितिबंध का अभाव है। अतीत्थापना और निक्षेप का अभाव होने से नीचे उद्वर्तन नहीं होता है।
९. उद्वर्तना के दो प्रकार हैं – निर्व्याघातभावी और व्याघातभावी। जहां अतीत्थापना एक आवलिका और निक्षेप आवलिका का असंख्यातवां भाग आदि बन जाता है वहां निर्व्याघातदशा होती है और जहां अतीत्थापना के एक आवलिका प्रमाण होने में बाधा आती है वहां व्याघातदशा होती है। अर्थात् जब प्राचीन सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुओं की स्थिति से नूतन बंध अधिक हो, पर इससे अधिक का प्रमाण एक आवलिका और एक आवलिका के असंख्यातवें भाग के भीतर ही प्राप्त हो तब यह व्याघातदशा होती है। इसके सिवाय उद्वर्तना में सर्वत्र निर्व्याघातदशा ही जानना चाहिये।