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[कर्मप्रकृति मोहनीय, मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र।।
२. विध्यातयोग्य – स्त्यानचित्रिक, अनन्तानुबंधी क्रोध आदि १२ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक और एकान्ततिर्यंचप्रायोग्य ११ प्रकृतियां, सम्यक्त्वमोहनीय के बिना शेष १२ उद्वलन प्रकृतियां, असाता. वेदनीय, अशुभविहायोगति, छह संहनन, पहले के बिना पांच संस्थान, नीचगोत्र, अपर्याप्त, अस्थिरषट्क औदारिकद्विक, तीर्थंकरनाम मिथ्यात्व मोहनीय।
३. यथाप्रवृत्तयोग्य - सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में विच्छिन्न होने वाली १४ घाती प्रकृतियां, साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, शुभविहायोगति, त्रसदशक निर्माण नाम।
४. गुणसंक्रमणयोग्य – पूर्वोक्त यथाप्रवृत्त योग्य ३९ तथा औदारिकद्विक वज्रऋषभनाराच संहनन, तीर्थंकर, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधादि तीन (३९+८=४७) प्रकृतियों को कम करने पर (१२२४७) शेष ७५ प्रकृतियां गुणसंक्रमणयोग्य हैं।
५. सर्वसंक्रमणयोग्य - उद्वलन योग्य १३ तिर्यंचएकादश संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय इन तीन के बिना मोहनीय की २५ प्रकृतियां स्त्यानचित्रिक (१३+११+२५+३) ५२ प्रकृतियों में सर्वसंक्रमण होता है।
६. विध्यात और यथाप्रवृत्त योग्य – औदारिक, वज्रऋषभनाराचसंहनन तीर्थंकर नाम। ७. यथाप्रवृत्त व गुण संक्रमण योग्य – निद्रा प्रचलाः अशुभ वर्णचतुष्क उपघात । ८. यथाप्रवृत्त व सर्व संक्रमण योग्य – संज्वलन क्रोध, मान, माया, पुरुषवेद
९. यथाप्रवृत्त विध्यात गुणसंक्रमण योग्य – असातावेदनीय, अशुभ, विहायोगति आदि के बिना पांच संहनन प्रथम संस्थान को छोड़कर पांच संस्थान, अपर्याप्त नीचगोत्र अस्थिरषट्क
१०. यथाप्रवृत्त गुण व सर्व संक्रमण योग्य - हास्य रति, भय जुगुप्सा ११. विध्यात, गुण और सर्व संक्रमण योग्य – मिथ्यात्व मोहनीय
१२. उद्वलना के बिना शेष चार संक्रमण योग्य - स्त्यानर्द्धित्रिक, आदि की बारह कषाय नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, तिर्यंचएकादश, इन तीस प्रकृतियों में उद्वलन के बिना चार संक्रमण होते हैं।
१३. विध्यात के बिना शेष चार संक्रमण योग्य – सम्यक्त्व मोहनीय १४. सर्व (पांचों ) संक्रमण योग्य – सम्यक्त्व मोहनीय के बिना शेष उद्वलन प्रकृतियां।
(आधार गो. कर्मकांड गाथा ४०९ - ४२८)