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[कर्मप्रकृति
६ - स्तिबुकसंक्रम और प्रदेशोदय में अन्तर अनुदीर्ण प्रकृति संबंधी जो दलिक उदयप्राप्त समान स्थिति वाली स्वजातीय प्रकृति में संक्रमित किया जाता है और संक्रान्त करके अनुभव किया जाता है, उसे स्तिबुकसंक्रम कहते हैं । इसी का नाम प्रदेशोदय है। अबाधाकाल के बीतने पर बद्धकर्म के उदय के दो प्रकार हैं - १. रसोदय, और प्रदेशोदय । अबाधा काल के बीतने पर बद्धकर्म का साक्षात तथारूप अनुभव होना, सोदय है और अपने रस का अनुभव न कराते हुये अन्य सजातीय प्रकृति के निषेकों के साथ वेदन किया जाना प्रदेशोदय है।
रसोदय होने में द्रव्य क्षेत्र, काल भाव और भव रूप पांच निमित्त हैं। इनमें से किसी एक अथवा अधिक निमित्तों के अभाव में उस कर्म का रसोदय नहीं हो पाता है तब उस कर्म के निषेक का दलिक आत्मा के साथ संबद्ध रहने की कालमर्यादा के पूर्ण होने पर प्रदेशोदय का मार्ग ग्रहण करता है। इस प्रदेशोदय के होने में उस कर्म का सहज परिणाम कारण है।
किसी किसी का यह मन्तव्य है कि जो प्रकृति सर्वथा रसहीन हो जाती है, उस प्रकृति के प्रदेश मात्र ही उदय को प्राप्त हों, वह प्रदेशोदय है और यदि रस उदय में आये तो वह उस प्रकृति का विपाकोदय कहलाता है। परन्तु ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि स्तिबुकसंक्रम रूप से यानि प्रदेशोदय रूप से उदय में आई हुई प्रकृति में रस अवश्य होता है, परन्तु उसका तीव्र रस परप्रकृति रूप से परिणमित हो जाने से स्वविपाक रूप से उदय में नहीं आ पाता है। इस प्रकार विवक्षित प्रकृति के प्रदेश स्वविपाक रूप से उदय में नहीं आये। किन्तु परविपाक रूप से उदय में आये। इसीलिये वह प्रदेशानुभव रहित का रसानुभव कहलाता है।
ज्ञानावरण आयु और अन्तराय इन तीन कर्मों में स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है। क्योंकि ज्ञानावरण और अन्तराय ध्रुवोदयी हैं और एक आयु का उदय जब तक पूर्ण नहीं तब तक बद्धायु का अबाधा काल पूर्ण नहीं होता है। इसलिये इनका स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है। उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से ज्ञानावरण, अन्तराय और आयु इन प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रम होता है।