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सत्ताप्रकरण ]
[ ४०९ शब्दार्थ - जस्स – जिनके, वरसासणावयव - उत्तम शासन रुपी अवयव, फरिस - स्पर्श, पविकसिय - प्रविकसित, विमलमइकिरणा - निर्मल बुद्धिरूपी किरणें, विमलंति - विमल कर देती हैं, कम्ममइले - कर्मों से मलीन, सो - वे, मे - मुझे, सरणं - शरणभूत, महावीरो - महावीर।
गाथार्थ – जिनके उत्तम शासन रूपी अवयव के स्पर्श से प्रविकसित निर्मल बुद्धिरूपी किरणे कर्मों से मलीन प्राणियों को विमल कर देती हैं, ऐसे वे महावीर प्रभु मुझे शरणभूत हों।
विशेषार्थ – जिन भगवान महावीर का जो अनुपम श्रेष्ठ शासन है उसके अवयव (एक अंश) के संस्पर्श से प्रकर्ष रूपेण विकसित अर्थात् उद्बोध को प्राप्त हुई और मिथ्याज्ञान रूप मल के दूर होने से निर्मलता को प्राप्त बुद्धि रूपी रश्मियां कर्ममलीन अर्थात् कर्म रूपी अंधकार से मलीमस प्राणियों को निर्मल करती हैं, ऐसे वे भगवान महावीर वर्धमान स्वामी संसार से भयभीत हुए मेरे लिये शरण अर्थात् परित्राण के कारण हैं। उनके सिवाय अन्य कोई मेरा त्राता-रक्षक नहीं है।
अतः कर्मक्षय के लिये अभय रूप धर्म का उपदेश देने वाले वे श्री वर्धमान जिनेन्द्र सदा जयवन्त हों।
कर्मप्रपंचं जगतोऽनुबन्धक्लेशावहं वीक्ष्य कृपापरीतः।
क्षयाय तस्योपदिदेश रत्नत्रयं स जीयाज्जिनवर्धमानः॥१॥ अर्थ – जगत के जीवों को निरन्तर क्लेश देने वाली कर्मपरंपरा को अपने केवलालोक में देखकर कृपालु भगवान महावीर ने उन कर्मों का क्षय करने के लिये ज्ञान-दर्शन चरित्र रूप रत्नत्रय का विवेचन किया। ऐसे जिनेश्वर सदा जयवत हों।
निरस्तकुमतध्वान्तं सत्पदार्थप्रकाशकम्।
नित्योदयं नमस्कुर्मो जैनसिद्धान्तभास्करम्॥ २॥ अर्थ – कुमतान्धकार का निराश करने वाले, सद्पदार्थ का प्रकाश करने वाले, नित्य उदय को प्राप्त जैनसिद्धान्तभास्कर, को नमस्कार करता हूँ।
पूर्वान्तर्गतकर्म - प्रकृतिप्राभृतसमुद्धृता येन।
कर्मप्रकृतिरियमतः श्रुतकेवलिगम्यभावार्था॥ ३॥ अर्थ – जिनके प्रभाव से पूर्वो के अन्तर्गत, कर्मप्रकृति नामक प्राभृत से प्रस्तुत कर्मप्रकृति