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[ कर्मप्रकृति
नामक ग्रंथ को उद्धृत किया गया है। जिसका सांगोपांग भावार्थ तो श्रुतकेवलीगम्य है ।
ततः क्व चैषा विषमार्थयुक्ता क्व चाल्पशास्त्रोर्थकृतश्रमोऽहं । तथापि सम्यग्गुरुसंप्रदायात् किंचित्स्फुटार्था विवृत्ता मयैषा ॥४ ॥
अर्थ
कहां तो यह विषम-गंभीर अर्थ युक्त कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थ ? और कहां मैं अल्पशास्त्रों में कृत परिश्रम बाला ? तथापि सम्यक्गुरु के संप्रदाय सान्निध्य से प्रस्तुत ग्रन्थ की कुछ स्पष्ट व्याख्या मेरे द्वारा की गई।
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कर्मप्रकृतिनिधानं बह्वर्थं येन मादशां योग्यम् । चक्रे परोपकृतये श्री चूर्णिकृते नमस्तस्मै ॥ ५ ॥
अर्थ
जिन्होंने परोपकार बुद्धि से कर्मप्रकृति रूप निधान को बह्वर्थ युक्त करके मेरे जैसों के लिए पठनीय किया है, ऐसे चूर्णिकार महाराज को नमस्कार करता हूँ ।
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एनामतिगंभीरां कर्मप्रकृतिं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥ ६ ॥
अर्थ
इस अतिगंभीर कर्मप्रकृति के वर्णन करने में मंगल अवस्था मलयगिरि ने प्राप्त की है । कर्मप्रकृति के अध्येता भी मोक्ष पाने के लिये मंगल प्राप्त करें ।
अर्हन्तो मंगलं मे स्युः सिद्धाश्च मम मंगलं ।
मंगलं साधवः सम्यग् जैनोधर्मश्च मंगलं ॥ ७ ॥
अर्थ - अर्हन्त मेरे लिये मंगल रूप हैं । और सिद्ध भी मेरे लिये मंगल रूप हैं तथा सभी साधु मेरे लिये मंगल रूप हैं । सम्यक् प्रकार से यह जैनधर्म भी मेरे लिये मांगलिक रूप है ।
इति मलयगिरि विरचित कर्मप्रकृति टीका का हिन्दी अनुवाद
समाप्त
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