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[ कर्मप्रकृति
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• इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धि ने अपने शास्त्रज्ञान के अनुसार अपनी अल्पमति द्वारा इस कर्मप्रकृति नामक प्रकरण को सम्पन्न किया है। इसमें अनुपयोग से कुछ अन्यथा कहा गया हो तो उत्तम दृष्टिवाद अंग के ज्ञाता आचार्य शुद्ध करके कथन करने की कृपा करें ।
विशेषार्थ अल्पबुद्धि होते हुए और गुरुमुख के चरणकमलों की उपासना करते हुए गुरु के पादमूल में रहकर जैसा मैंने इसे कर्मप्रकृति नामक प्राभृत से श्रवण किया है, (दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में चौदह पूर्व हैं, उनमें से अनेक वस्तु (अध्याय विशेष ) सहित दूसरे अग्राह्यणीय नामक पूर्व में बीस प्राभृत परिणामवाली पांचवी वस्तु है, उसमें चौबीस अनुयोगद्वार युक्त कर्म प्रकृति नामक चौथा प्राभृत है) उसमें से मैंने यह प्रकरण नीत अर्थात आकृष्ट किया है। इस प्रकरण में अनाभोग (असावधानी ) जनित यदि कुछ भी स्खलन हुआ हो, क्योंकि प्रयत्न करने पर भी आवरण कर्म की सामर्थ्य से छद्मस्थ जीव के अनाभोग संभव है, तो अनाभोगजनित जो कुछ भी भूल-चूक हुई हो, उसे शोध कर अर्थात् दूर कर अर्थात् उत्तम श्रेष्ठ बुद्धि के अतिशय से संपन्न दृष्टिवादज्ञ अर्थात् द्वादशांग के वेत्ता आचार्य मेरे ऊपर महान अनुग्रहबुद्धि रखकर जहां जो पद आगम के प्रतिकूल हो उसे दूर कर और वहां पर आगम के अनुसार दूसरा पद रखकर निर्देश करें कि यहां यह पद समीचीन है और यह नहीं । किन्तु मेरे ऊपर उपेक्षा रूपी अप्रसाद करने की कृपा न करें ।
‘इय कम्मप्पगडीओ' इत्यादि वाक्य से इस प्रकरण की सर्वज्ञमूलकता प्रगट की गई जानना चाहिये। क्योंकि भगवान ने दृष्टिवाद को साक्षात रूप से और सूत्ररूप से सुधर्मास्वामी ने कहा है । कर्मप्रकृतिप्राभृत दृष्टिवाद के अन्तर्गत है और उससे यह प्रकरण उद्धृत किया गया है, इसलिये यह परम्परा से सर्वज्ञमूलक है । अर्थात् इसके मूलप्रणेता सर्वज्ञ हैं ।
उत्तम साहित्यकारों की परम्परा है कि शास्त्र के आदि में, मध्य में और अंत में मंगल अवश्य करना चाहिये। क्योंकि आदि में मंगल कहने पर शास्त्र निर्विघ्न समाप्ति को प्राप्त होता है, मध्य में मंगल के कथन से शिष्य, प्रशिष्य आदि की परम्परागत से स्थिरता प्राप्त होती है और अंत में मंगल कथन के प्रभाव से शिष्य - प्रशिष्ययादि के द्वारा अवधारण किया जाता हुआ शास्त्र उनके ह्रदय में चिरकाल तक भलीभांति स्थिर रहता है। इनमें से आदि मंगल तो सिद्धं सिद्धत्थ सुयं इत्यादि प्रथम गाथा के द्वारा कहा गया और मध्य मंगल अकरण अणुइन्नाए अणुयोगधरे पणिवयामि इस गाथा के द्वारा किया गया और अब अंत मंगल कहते हुए आचार्य ग्रंथ को समाप्त करते हैं
जस्स वरसासणावयव-फरिस पविकसिय विमलमकिरणा । विमलंति कम्ममइले सो मे सरणं महावीरो ॥ ५७ ॥
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