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[ कर्मप्रकृति से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय पर्यन्त नौ गुणस्थानों में संभव है। आगे के गुणस्थानों में उनके उपशांत अथवा क्षीण हो जाने से संक्रम का अभाव है।
५. मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व के अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त के जीव संक्रमक हैं। आगे के गुणस्थानों में सत्ता का अभाव हो जाने से संक्रम संभव नहीं है तथा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव किसी भी दर्शनमोहनीय प्रकृति का संक्रमण नहीं करते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव अपनी आधारभूत मिथ्यात्व प्रकृति को स्वभाव से ही संक्रमित नहीं करते हैं इसलिये अविरतसम्यग्दृष्टि आदि जीवों को मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों का संक्रमक बतलाया है।
६. किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व का मिथ्यादृष्टि भी संक्रमक होता है तथा सम्यक्त्व का मिथ्यादृष्टि ही संक्रमक है। क्योंकि मिथ्यात्व में वर्तमान जीव सम्यक्त्व को संक्रमित करता है, सास्वादन अथवा मिश्र गुणस्थान वर्ती जीव संक्रमित नहीं करते हैं।
७. मिथ्यात्व और सास्वादन गुणस्थान में ही उच्चगोत्र का संक्रमण होता हैं । अन्य गुणस्थान वर्ती जीव उच्चगोत्र का संक्रमण नहीं करते हैं। क्योंकि अन्य जीव नीचगोत्र का बंध नहीं करते हैं और नीचगोत्र के बन्धकाल में ही उसका संक्रम माना है।
८. उक्त प्रकृतियों से शेष रही मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि आदि सूक्ष्मसंपराय पर्यन्त दस गुणस्थान वर्ती जीव संक्रमक हैं। आगे के गुणस्थानों में बन्ध का अभाव होने से उनमें पतद्ग्रहता नहीं रहती है।