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परिशिष्ट ]
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पतद्ग्रहस्थान
संक्रमस्थान
स्वामी
X
क्षपकश्रेणी
x
२ प्रकृतिक
उपशमश्रेणीगत क्षायिक सम्यग्दृष्टि
३ प्रकृतिक ८ प्रकृतिक ६ प्रकृतिक ५ प्रकृतिक २ प्रकृतिक ५ प्रकृतिक ३ प्रकृतिक २ प्रकृतिक १ प्रकृतिक
x उपशम सम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणी क्षायिक सम्यग्दृष्टि x
१ प्रकृतिक
xxx
क्षपकश्रेणी
२ - कर्मप्रकृतियों के संक्रमयोग्य गुणस्थान परप्रकृति रूप से परिवर्तित हो जाने को संक्रम कहते हैं। किन प्रकृतियों का किस गुणस्थान तक संक्रम सम्भव है अर्थात् उन उन प्रकृतियों का संक्रमपर्यवसानस्थान कौनसा है कि वहां तक तो संक्रम होता है और उसके बाद के गुणस्थानों में नहीं होता है और प्रतिपातदशा में पुनः उस गुणस्थान के प्राप्त होने पर संक्रम प्रारंभ हो जाता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है -
१. सातावेदनीय का संक्रम पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, उससे आगे के गुणस्थानों में नहीं। क्योंकि सातवें आदि गुणस्थानों में असातावेदनीय का बंध नहीं होकर सातावेदनीय का ही बंध होता है इसलिये असाता का ही बध्यमान साता में संक्रम होता है न कि साता का।
२. अनन्तानुबंधी कषायों का संक्रम मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त सात गुणस्थानों में होता है। आगे के गुणस्थानों में उनके उपशांत अथवा क्षीण हो जाने से संक्रम संभव नहीं है।
३. यश:कीर्ति नामकर्म का मिथ्यात्व से लेकर अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानों पर्यन्त संक्रम होता है आगे के गुणस्थानों में पतद्ग्रह रूप होने से संक्रम संभव नहीं है।
४. अनन्तानुबंधी कषायों के अतिरिक्त शेष बारह कषाय और नो कषायों का संक्रम मिथ्यात्व