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[ ४०५
संत्ताप्रकरण ]
चाहिये यथा मोहनीय की तद्गत सभी उत्तर प्रकृतियों के बंधविच्छेद होने पर उपशांतमोह गुणस्थान से गिरने पर पुनः बंध आरम्भ करने के प्रथम समय में जो बंध होता है, उसे उस समय न भूयस्कार कह सकते है, न अल्पतर और न अवस्थित ही क्योंकि उस बंध में इन भूयस्कार आदि तीनों का लक्षण नहीं पाया जाता है । इसलिये वह अवक्तव्य बंध कहलाता है । क्योंकि अबंध के पश्चात होने वाले बंध को भूयस्कार आदि नाम से कहना अशक्य है । इसी प्रकार वेदनीय को छोडकर ज्ञानावरणादि शेष कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के अवक्तव्य बंध का विचार कर लेना चाहिये । वेदनीय का तो अवक्तव्य बंध संभव नहीं है । क्योंकि उसका सर्वथा बंधविच्छेद सयोगिकेवली के चरम समय में होता है और वहां से उनका प्रतिपात नहीं होता है । जिससे कि बंध प्रारम्भ होकर प्रथम समय में अवक्तव्य कहा जाये ।
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इस प्रकार मूल प्रकृतियों के आश्रय से अवक्तव्य को छोडकर शेष तीन प्रकार होते हैं, किन्तु उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा चारों ही प्रकार संभव हैं ।
जिस प्रकार बंध में चारों प्रकार का कथन किया गया है, उसी प्रकार संक्रम में, उद्ववर्तना में, अपवर्तना में, उदीरणा में, उपशमना में, उदय में और सत्ता में प्रकृतिस्थानों में, स्थितिस्थानों में अनुभागस्थानों में और प्रदेशस्थानों में भी विचार कर लेना चाहिये तथा करणोदयसंताणं, सामित्तोघेहिं सेसगं
नेयं ।
गईयाइमग्गणासुं संभवओ सुठु आगमिय ॥ ५३॥
शब्दार्थ - करणोदयसंताणं
शेष, नेयं
द्वारा, सेस संभवओ यथासंभव,
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सुट्ठ
गाथार्थ
करण, उदय और सत्व के ओघस्वामित्व द्वारा गति आदि मार्गणाओं में यथासंभव अच्छी तरह विचार करके शेष कथन जानना चाहिये ।
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- करण उदय और सत्व के, सामित्तोघेहिं – ओघस्वामित्व जानना चाहिये, गईयाइमग्गणासुं गति आदि मार्गणाओं में, अच्छी तरह, आगमिय विचार कर ।
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विशेषार्थ आठों करणों का उदय और सत्ता का जो प्रत्येक का विस्तार सहित स्वरूप कहा है, उसे ओघस्वामित्व कहते है । इसलिये यथोक्त आठों करण, उदय और सत्ता व उन ओघस्वामित्वों को विचारकर शेष का भी जान लेना चाहिये । कहां और किसका जानना चाहिये तो इसका उत्तर यह है कि गति आदि चौदह मार्गणास्थानों में जानना चाहिये । उसे कैसे जानना चाहिये तो इसका उत्तर यह है कि यथासंभव रीति से अर्थात् जहां जैसा घटित हो, वहां उसी प्रकार से १. मूल और उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार आदि बंधों का प्ररूप परिशिष्ट में देखिये ।