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[ कर्मप्रकृति
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तसा
अध्यवसाय का अभाव होने से वैक्रियएकादशक का पुनः बंध नहीं किया, तत्पश्चात् वह एकेन्द्रिय हुआ तब उस वैक्रियएकादशक का दीर्घ उद्वलना से उद्वलन करने लगा। दीर्घकालीन उद्वलना से उद्वलन करते हुए जब स्वरूप की अपेक्षा एक समय मात्र अवस्थान वाली, अन्यथा दो समय मात्र अवस्थान वाली एक स्थिति शेष रहती है। तब उस वैक्रियएकादशक का जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है यथा -
मणुयदुगुच्चागोए, सुहुमखणबद्धगेसु सुहुमतसे।
तित्थयराहारतणू, अप्पद्धा बंधिया सुचिरं ॥ ४३॥ शब्दार्थ – मणुयदुगुच्चागोए – मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का, सुहुमखणबद्धगेसु - सूक्ष्म जीव ने अंतर्मुहूर्त तक बंध किया, सुहुमतसे – सूक्ष्मत्रस में, तित्थयराहारतणू – तीर्थंकर और आहरकसप्तक का, अप्पद्धा – अल्पकाल, बंधिया – बांधकर, सुचिरं - चिरकाल तक।
गाथार्थ – सूक्ष्म त्रस ने पहले मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का उद्वलन किया और पुनः सूक्ष्म त्रस जीवों में उत्पन्न होकर पूर्व रीति से उद्वलना करते हुए जब एक स्थिति शेष रहती है, तब इन तीन प्रकृतियों का तथा तीर्थंकर और आहारकसप्तक का अल्पकाल तक बंध करके चिरकाल तक उद्वलना करते हुए जब एक स्थिति शेष रहती है तब उनका जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ – क्षपितकर्मांश सूक्ष्म त्रस जीव ने पहले मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का उद्वलन किया। तत्पश्चात् 'सुहुमखणबद्धगेसु' अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय पृथ्वी आदि होता हुआ क्षण अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक पुनः उक्त तीन प्रकृतियों का बंध किया। तत्पश्चात् सूक्ष्म त्रसों से अर्थात् तेजस्कायिक, वायुकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ और वहां चिरकालीन उद्वलना के द्वारा उनकी उद्वलना करने लगा, उद्वलना करते हुए जब उन कर्मों की दो समय मात्र अवस्थान वाली एक स्थिति शेष रहती है, तब सूक्ष्म एकेन्द्रिय के द्वारा अन्तर्मुहूर्त तक बांधे गये मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है।
तीर्थंकर नामकर्म की अल्पकाल अर्थात् कुछ अधिक चौरासी हजार वर्ष प्रमाण स्थिति को बांधकर केवली हुआ, तत्पश्चात् सुचिरं अर्थात् देशोन पूर्वकोटि रूप दीर्घकाल तक केवली पर्याय को पालनकर अयोगिकेवली होते हुए उन क्षपितकर्मांश अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में वर्तमान अयोगिकेवली तीर्थंकर भगवंत के तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है।