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[ कर्मप्रकृति
अनन्तानुबंधी का क्षय करते हुए जब उसकी स्थिति एक समय अथवा दो समय मात्र शेष रहती है, तब अनन्तानुबंधी कषायों का जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है तथा –
___ उव्वलमाणीण उव्वल-णा एगट्ठिई दुसामइगा।
दिट्ठिदुगे बत्तीसे, उदहिसए पालिए पच्छा॥ ४०॥ __ शब्दार्थ - उव्वलमाणीण - उद्वल्यमान प्रकृतियों की, उव्वलणा - उद्वलना करते हुए, एगढ़िई - एक स्थिति, दुसामइगा – द्विसामयिक (दो समयवाली), दिट्ठिदुगे - दर्शनद्विक (सम्यक्त्व, मिश्रमोह), बत्तीसे उदहिसए - एक सौ बत्तीस सागरोपम तक, पालिए - पालन करने के, पच्छा – पश्चात् ।
गाथार्थ – उद्वल्यमान प्रकृतियों की उद्वलना करते हुये जब द्विसामयिक एक स्थिति शेष रहती है तब उन प्रकृतियों का तथा एक सौ बत्तीस सागरोपम तक सम्यक्त्व का पालन करने के पश्चात् मिथ्यात्व में जाकर दर्शनमोहद्विक की उद्वलना करते हुए जब दो समय वाली एक स्थिति शेष रहती है तब उनका जघन्य प्रदेशसत्व प्राप्त होता है।
विशेषार्थ - उद्वल्यमान तेईस प्रकृतियों के उद्वलन काल में स्वरूप की अपेक्षा जब एक समय मात्र अन्यथा दो समय प्रमाण अवस्थान वाली एक स्थिति शेष रहती है तब उन उद्वलन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसत्व होता है।
इस प्रकार सामान्य से उद्वलन योग्य प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशसत्व को जानना चाहिये। अब इसी विषय में जो विशेषता है उसको स्पष्ट करते है -
"दिट्ठिदुगे' इत्यादि अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्व का परिपालन करने के पश्चात् किसी क्षपितकांश ने मिथ्यात्व को प्राप्त किया और पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र प्रमाण वाली उद्वलना के द्वारा सम्यक्त्व और मिश्र मोह प्रकृतियों का उद्वलन करना प्रारम्भ किया और उद्वलन करते हुए उन दोनों के दलिकों को मिथ्यात्व में संक्रान्त करता है तब सर्वसंक्रमण के द्वारा आवलिका से उपरिवर्ती सभी दलिकों को संक्रान्त किया तथा आवलिका गत दलिक को स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा संक्रान्त किया। इस प्रकार संक्रान्त करते हुए जब स्वरूप की अपेक्षा एक समय मात्र अन्यथा दो समय अवस्थान वाली एक स्थिति शेष रहती है तब सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय इन दो प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है तथा –
अंतिम लोभ जसाणं, मोहं अणुवसमइत्तु खीणाणं (सेसाणं)। नेयं अहापवत्त-करणस्स चरमम्मि समयम्मि॥४१॥