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सत्ताप्रकरण ]
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अपने अपने बंधान्त समय में उन तिर्यंच और मनुष्यों के विकलत्रिकादि का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है।
___इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामित्व जानना चाहिये। जघन्य प्रदेशसत्कर्म स्वामित्व । अब जघन्य प्रदेशसत्व के स्वामित्व का कथन करते है -
खवियंसयम्मि पगयं, जहन्नगे नियगसंतकम्मंते।
खणसंजोइयसंजो-यणाण चिरसम्मकालंते॥ ३९॥ शब्दार्थ – खवियंसयम्मि – क्षपितकर्मांश का, पगयं – प्रकृत (अधिकार), जहन्नगेजघन्य में, नियगसंतकम्मंते - अपनी अपनी सत्ता के अंत में, खण - क्षण (अन्तर्मुहूर्त), संजोइय – बांधकर, संजोयणाण – अनन्तानुबंधी के, चिरसम्मकालंते – दीर्घकालिक सम्यक्त्व काल में अंत में।
__ गाथार्थ - जघन्य प्रदेशसत्व के स्वामित्व में क्षपितकांश जीव का अधिकार है। यह जघन्य प्रदेशसत्व स्वामित्व अपनी अपनी सत्ता के चरम समय में (अंत में) पाया जाता है। किन्तु अनन्तानुबंधी की विसंयोजना कर और मिथ्यात्व में जाकर अन्तर्मुहूर्त काल तक बांधकर दीर्घकालिक सम्यक्त्वकाल के अंत में अनन्तानुबंधी के क्षपण के अंतिम समय में उनका जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ – इस जघन्य प्रदेशसत्व के स्वामित्व में क्षपितकर्मांश जीव से प्रयोजन है प्रायः सभी कर्मों का जघन्य प्रदेशसत्व का स्वामित्व अपनी अपनी सत्ता के चरम समय में जानना चाहिये - नियगसंतकम्मंते।
इस प्रकार सामान्य से सर्व कर्मों के जघन्य प्रदेशसत्व के स्वामित्व को जानना चाहिये। लेकिन अब जिन कर्मों के जघन्य प्रदेश सत्व के स्वामित्व में विशेष भेद है, उसको पृथक् पृथक् रूप से कहते हैं -
'खणसंजोइय' इत्यादि अर्थात् क्षपितकांश सम्यग्दृष्टि जीव ने अनन्तानुबंधी कषायों की उद्वलना करने के बाद पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तानुबंधी कषायों का बंध किया। तत्पश्चात् पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त किया, और वह उस सम्यक्त्व को दो छियासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम तक पालन करके क्षपणा के लिये उद्यत हुआ और