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सत्ताप्रकरण ]
[ ३९१ अन्य आचार्यों का यह मत है कि तत्प्रायोग्य जघन्य योग वाले क्षपितकर्मांश जीव के द्वारा प्रथम समय में बद्ध जो कर्मलता है, वही तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशसत्व है।
'आहारतणू त्ति' अर्थात् आहारक शरीर यानी आहारकसप्तक की अप्पद्धा बंधिय अल्पकाल वाली स्थिति को बांध कर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और सुचिर दीर्घकालीन उद्वलना के द्वारा उद्वलन करते हुए जब दो समय मात्र अवस्थान वाली एक स्थिति शेष रहती है, तब आहारकसप्तक का अघन्य प्रदेशसत्व प्राप्त होता है।
इस प्रकार जघन्य प्रदेशसत्व के स्वामित्व का वर्णन जानना चाहिये। प्रदेशसत्कर्मस्थान प्ररूपणा अब प्रदेशसत्व के स्थानों की प्ररूपणा करने के लिये स्पर्धक प्ररूपणा करते है -
चरमावलियपविठ्ठा, गुणसेढी जासिमत्थि न य उदओ।
आवलिगासमयसमा, तासिं खलु फड्डगाई तु॥४४॥ शब्दार्थ – चरमावलियपविट्ठा - अन्त्य आवलिका में प्रविष्ट, गुणसेढी - गुणश्रेणी, जासिं - जिनकी, अत्थि – है, न य उदओ - उदय न हो, आवलिगासमयसमा – आवलिका के समय तुल्य, तासिं -उनके, खलु – नियम से, फड्डगाई – स्पर्धक, तु - किन्तु ।
गाथार्थ – जिन प्रकृतियों की गुणश्रेणी क्षयकाल की अन्त्य आवलिका में प्रविष्ट है, किन्तु उदय नहीं, उनके स्पर्धक नियम से आवलिका के समयतुल्य (प्रमाण) होते हैं।
विशेषार्थ – चरम समय अर्थात् अंतिम क्षपणकाल में जो आवलिका है, उसमें जिन प्रकृतियों की गुणश्रेणी प्रविष्ट है और उदय नहीं है ऐसी स्त्यानर्धित्रिक, मिथ्यात्व, आदि की बारह कषाय, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति को छोड़कर शेष चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर सूक्ष्म और साधारण उनतीस प्रकृतियों के एक आवलिका में जितने समय होते हैं, उतने स्पर्धक होते हैं। इसका स्पष्ट आशय यह है -
अभव्यप्रायोग्य जघन्य प्रदेशसत्व से युक्त कोई जीव त्रसों में उत्पन्न हुआ और वहां विरति और देशविरति को अनेक बार प्राप्त कर, चार बार मोहनीय कर्म को उपशमा कर पुनः एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहां पर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां क्षपणा के लिये उद्यत हुआ। उसके अंतिम स्थितिखंड के विनष्ट हो जाने पर और स्तिबुकसंक्रम के द्वारा अंतिम आवलिका के क्षीण होते हुए जब दो समय मात्र अवस्थान वाली