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सत्ताप्रकरण ]
[ ३८९ शब्दार्थ – अंतिम लोभ जसाणं - अंतिम लोभ (संज्वलन लोभ) और यश:कीर्ति, मोहं - मोह का, अणुवसमइत्तु – उपशम नहीं करके, खीणाणं - क्षय किये जाने वाले, अहापवत्तकरणस्स – यथाप्रवृत्तकरण के, चरमम्मि समयम्मि - चरम समय में, नेयं - जानना चाहिये।
गाथार्थ - मोह का उपशम नहीं करके क्षय किये जाने वाले संज्वलन लोभ और यश:कीर्ति का जघन्य प्रदेश सत्व यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में जानना चाहिये।
विशेषार्थ – 'अंतिम लोभ जसाणं' अर्थात् संज्वलन लोभ और यश:कीर्ति का मोहनीय का चार बार उपशम नहीं करके अर्थात् उपशमश्रेणी पर आरोहण नहीं करके शेष क्षपितकर्मांश क्रियाओं के द्वारा क्षीण होने पर यथाप्रवृत्तकरण के अंतिम समय में जघन्य प्रदेशसत्व जानना
चाहिये। मोहनीय का उपशमन किये जाने पर उस समय गुणसंक्रमण के द्वारा बहुत दलिक प्राप्त होते हैं, किन्तु यहां उनसे प्रयोजन नहीं है। इसलिये मोहनीय के उपशमन का प्रतिषेध किया गया है। तथा -
वेउव्विक्कारसगं, खणबंधगते उ नरय जिट्ठठिइ।
उव्वट्टित्तु अबंधिय, एगेंदिगए चिरुव्वलणे॥ ४२॥ शब्दार्थ – वेउव्विक्कारसगं - वैक्रिय एकादशक की, खणबंधगते – अन्तर्मुहूर्त तक बंध कर, उ – पुनः, नरय – नरक, जिट्ठठिइ – उत्कृष्ट स्थिति, उव्वट्टित्तु - वहां से निकलकर, अबंधिय - बंध नहीं करके, एगेंदिगए - एकेन्द्रिय में गये हुए के, चिरुव्वलणे - चिरकाल तक उद्वलना करते हुए।
गाथार्थ – वैक्रियएकादशक की उद्वर्तना कर पुनः अन्तर्मुहूर्त तक बंध करके नरक की उत्कृष्ट स्थिति तक अनुभव करके वहां से निकलकर, उनका बंध नहीं करके एकेन्द्रिय में गए हुए के चिरकाल तक उद्वलना करते हुए जब एक स्थिति शेष हो तब उनका जघन्य प्रदेशसत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ – नरकद्विक, देवद्विक और वैक्रियसप्तक इस वैक्रियएकादशक का पहले क्षपितकर्मांश जीव ने उद्वलन किया, तत्पश्चात् पुनः अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका बंध किया, तत्पश्चात् उत्कृष्ट स्थिति वाले अप्रतिष्ठ नामक नरक में उत्पन्न हुआ और वहां पर रहते हुए वैक्रियएकादशक का तेतीस सागरोपम तथा विपाक और संक्रमण से यथायोग्य अनुभव किया, उसके बाद नरक से निकलकर तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहां पर इस प्रकार के