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[ कर्मप्रकृति
हुआ। वहां पर सम्यक्त्व और देशविरति को अनेक बार प्राप्त कर और चार बार मोहनीय को उपशमा कर स्त्रीवेद और नपुसंकवेद को बार बार बंध से और संक्रमण के द्वारा हास्यादि षट्क के दलिकों के बहुत से परिमाण को पूरा कर मनुष्य हुआ और वहां चिरकाल तक संयम का परिपालन कर कर्मक्षपण के लिये उद्यत हुआ। तब उस क्षपक के चरमखंड के अंतिम समय में जो छहों नोकषायों का एक एक प्रदेश सत्व विद्यमान है, वह उन नो कषायों का सर्वजघन्य प्रदेशसत्वस्थान है। तदनन्तर उस सर्वजघन्य प्रदेशसत्वस्थान से लेकर नाना जीवों की अपेक्षा एक एक प्रदेश की वृद्धि से लगातार अनन्त प्रदेशसत्वस्थान तब तक कहना चाहिये जब तक कि गुणितकर्मांश का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व प्राप्त होता है। इस प्रकार छहों नोकषायों का एक एक स्पर्धक होता है - - अब मोहनीय कर्म का छोड़कर शेष घाति कर्मों के स्पर्धकों का निरुपण करते हैं -
ठिइखंडगविच्छेया, खीणकसायस्स सेसकालसमा।
एगहिया घाईणं, निद्दा पलयाण हिच्चेकं ॥४८॥ शब्दार्थ - ठिइखंड गविच्छे या - स्थितिखंड के विच्छेद से, खीणकसायस्स - क्षीणकषायी जीव के, सेसकालसमा - शेष रहे काल के समय से, एगहिया - एक अधिक, घाईणं - घाति प्रकृतियों के, निद्दापयलाण – निद्रा और प्रचला के, हिच्चेकं – एक (स्पर्धक) छोड़कर।
- गाथार्थ - क्षीणकषायी जीव के स्थितिखंड के विच्छेद से शेष रहे हुए काल के समय से एक स्पर्धक अधिक घातिकर्मों के स्पर्धक होते हैं। किन्तु निद्रा और प्रचला के एक स्पर्धक को छोड़कर स्पर्धक कहना चाहिये।
विशेषार्थ – क्षीणकषाय संयत के स्थितिखंड-विच्छेद से अर्थात् स्थितिघात का विच्छेद होने के पश्चात् जो शेष काल रहता है, उसके समान अर्थात् शेषकाल के जितने समय होते हैं, उनसे एक अधिक स्पर्धक घातिकर्मों के होते हैं। निद्रा और प्रचला के एक अंतिम स्थितिगत स्पर्धक को छोड़कर शेष स्पर्धक कहना चाहिये। क्योंकि निद्रा और प्रचला के उदय का अभाव होने से अपने स्वरूप की अपेक्षा चरम समय में उनके दलिक नहीं पाये जाते हैं, किन्तु परप्रकृति रुप से पाये जाते हैं। इसलिये उन दोनों का एक अंतिम स्थितिगत दलिक छोड़ा गया है।
अब उक्त कथन का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण करते हैं -
क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के संख्यातवें भागों के बीत जाने पर एक संख्यातवें भाग के जो कि अर्तमुहूर्त प्रमाण है, शेष रहने पर ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक