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[ कर्मप्रकृति
आहारकसप्तक का चिरकाल तक बंध से पूरित करने वाले के बंधान्त समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है ।
विशेषार्थ
तैजससप्तक, शुभ वर्णादि एकादशक, अगुरुलघु और निर्माण, इन शुभ ध्रुवबंधिनी बीस प्रकृतियों का तथा शुभ और स्थिर प्रकृति का भी पूर्वोक्त प्रकार से उत्कृष्ट प्रदेशसत्व जानना । विशेष यह है कि चार बार मोहनीय कर्म के उपशमन के अनन्तर शीघ्र ही कर्म क्षपण के लिये उद्यत जीव के उक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व समझना चाहिये ।
देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक बंध से तीर्थंकर नामकर्म को पूरित करने वाले गुणितकर्मांश जीव के अपने अपने बंध के अंतिम समय में तीर्थंकरनाम का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है ।
आहारकशरीर अर्थात् आहारकसप्तक का चिरचित अर्थात् देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक पुनः पुनः बंध से संचय करने वाले जीव के अपने बंधविच्छेद के समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है
तथा
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तुल्ला नपुंसवे गिदिए य थावरायवज्जोया । विगल सुहुमत्तियाविय, नरतिरिय चिरज्जि (च्चि ) या होंति ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ तुल्ला तुल्य (समान), नपुंसवेएण - नपुंसकवेद के, एगिंदिए एकेन्द्रिय, य और, थावरायवज्जोया - स्थावर, आतप और उद्योत का, विगलसुहुमत्तियावियविकलत्रिक और सूक्ष्मत्रिक का भी, नरतिरिय मनुष्य और तिर्यंच के, चिरज्जिया तक संचय करने वाले, होंति होते हैं ।
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चिरकाल
गाथार्थ – एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप और उद्योत का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व नपुंसकवेद के तुल्य जानना चाहिये । विकलत्रिक और सूक्ष्मत्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व इनका चिरकाल तक संचय करने वाले मनुष्य और तिर्यंच के बंधान्त समय में होता है ।
विशेषार्थ – एकेन्द्रियजाति, स्थावर आतप और उद्योत का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व नपुंसकवेद के तुल्य जानना चाहिये । अर्थात् पूर्व में जैसे नपुंसकवेद का ईशानस्वर्ग के देवभव के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्व बताया है, उसी प्रकार इन चारों प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशसत्व ईशान स्वर्ग के देव के चरम समय में पाया जाता है ।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप विकलत्रिक तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण रूप सूक्ष्मत्रिक को जब पूर्वकोटि पृथक्त्व तक तिर्यंच और मनुष्यभव के द्वारा उपार्जित किया जाये तब