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[ कर्मप्रकृति पूरित्तु पुव्वकोडी - पुहुत्त नारगदुगस्स बंधते।
एवं पल्लतिगंते, वेउब्विय सेसनवगम्मि॥ ३४॥ शब्दार्थ – पूरित्तु – पूरित कर, पुव्वकोडी-पुहुत्त – पूर्वकोटि पृथक्त्व, नारगदुगस्सनरकद्विक को, बंधते – बंध के अंत में, एवं – इसी प्रकार, पल्लतिगंते – तीन पल्योपम के अंत में, वेउव्विय - वैक्रिय, सेस - शेष, नवगम्मि – नवक का।
गाथार्थ – पूर्वकोटि पृथक्त्व तक नरकद्विक को पूरित कर बंध के अंत में उनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। इसी प्रकार शेष वैक्रियनवक को भी पूर्वकोटि पृथक्त्व और तीन पल्योपम से पूरने पर अन्त्य समय में उनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ – पूर्वकोटि पृथक्त्व अर्थात् सात पूर्वकोटि वर्ष तक संक्लिष्ट अध्यवसायों से नरकद्विक - नरकगति और नरकानुपूर्वी को बारबार पूर कर अर्थात् बंध से संचित करके नरक के अभिमुख होता हुआ बंध के अंतिम समय में नरकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है।
इसी प्रकार से पूर्वकोटि पृथक्त्व तक कर्मभूमियों में और तीन पल्योपम तक भोगभूमियों में विशुद्ध अध्यवसायों से वैक्रियएकादश में से देवद्विक और वैक्रियसप्तक को बंध से पूरित कर देवत्व के अभिमुख होने वाला जीव उन देवद्विक और वैक्रियसप्तक रूप नौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है तथा –
तमतमगो सव्वलहुं, सम्मत्तं लभिय सव्वचिरमद्धं।
पूरित्ता मणुयदुर्ग, सवजरिसहं सबंधते॥ ३५॥ शब्दार्थ – तमतमगो - तमतमा पृथ्वी का नारक, सव्वलहुं – सर्वलधुकाल से (अतिशीघ्र) सम्मत्तं – सम्यक्त्व को, लभिय – प्राप्तकर, सव्वचिरमद्धं - सुदीर्घकाल तक, पूरित्ता – पालनकर, मणुयदुर्ग – मनुष्यद्विक को, सवजरिसहं – वज्रऋषभनाराचसंहनन सहित, संबंधते – अपने बंध के अन्त्य समय में।
गाथार्थ – तमतमा पृथ्वी का नारक अतिशीघ्र सम्यक्त्व को प्राप्त कर और सुदीर्घकाल तक वज्रऋषभनाराचसंहनन सहित मनुष्यद्विक को बांधते हुए अपने बंध के अन्त्य समय में उनके उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है।
विशेषार्थ – तमतमगो अर्थात् सातवीं पृथ्वी के नारक के जब सर्वलघु अर्थात् अतिशीघ्र जन्म लेने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बीतने पर सम्यक्त्व को प्राप्तकर अतिदीर्घकाल तक सम्यक्त्व का पालन करता हुआ मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन को बंध से परिपूरित करता है, (क्योंकि