________________
३८२ ]
[ कर्मप्रकृति विशेषार्थ – जो जीव पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी है, वही जीव संज्वलन क्रोधादि चारों कषायों का क्रम से पुरुषवेद आदि सम्बन्धी दलिकों के संक्रमण होने पर उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है। इसका आशय यह है कि जो जीव पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी है, जब पुरुषवेद को सर्वसंक्रम से संज्वलन क्रोध में सक्रान्त करता है तब वह संज्वलन क्रोध के उत्कृष्ट प्रदेश सत्व का स्वामी होता है। वही जीव जब संज्वलन क्रोध को सर्वसंक्रम से मान में संक्रान्त करता है तब वह संज्वलन मान के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का और वही जीव जब संज्वलन मान को सर्वसंक्रम से संज्वलन माया में संक्रान्त करता है तब वह संज्वलन माया के और जब वही जीव संज्वलन माया को सर्वसंक्रम से संज्वलन लोभ में संक्रान्त करता है, जब वह संज्वलन लोभ के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है।
'चउरुवसमित्तु' इत्यादि अर्थात् चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन कर गुणितकर्मांश जीव शीघ्र कर्मक्षपण के लिये क्षपकश्रेणी को प्राप्त हुआ तो सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान होने पर उसके सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यश:कीर्ति इन तीन कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है। क्योंकि क्षपकश्रेणी पर चढ़ा हुआ जीव इन प्रकृतियों में गुणसंक्रम से अशुभ प्रकृतियों के बहुत से दलिकों को संक्रान्त करता है। इसी कारण सूक्ष्मसंपराय के चरम समय में इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है। जैसा कि कहा है -
चउरुवसामिय मोहं जसुच्चसायाण सुहम खवगंते।
जं असुभ पगईदलियाण संकमो होई एयासु ॥' अर्थात् - चार बार मोह को उपशमना कर सूक्ष्मसंपराय क्षपक के अंतिम समय में यश:कीर्ति उच्चगोत्र, सातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। क्योंकि उस समय इन प्रकृतियों में अशुभ प्रकृतियों के दलिकों का संक्रमण होता है तथा –
देवनिरियाउगाणं, जोगुक्कस्सेहिं जेट्ठगद्धाए।
बद्धाणि ताव जावं, पढमे समए उदिन्नाणि॥ ३२॥ शब्दार्थ – देवनिरियाउगाणं - देवायु तथा नरकायु का, जोगुक्कस्सेहि - उत्कृष्ट योग के द्वारा, जेट्ठगद्धाए – उत्कृष्ट बंधाद्धा द्वारा, बद्धाणि - बांधी हुई, ताव – तब तक, जावं - जब तक, पढमे समए - प्रथम समय में, उदिन्नाणि - उदय को प्राप्त नहीं होती।
गाथार्थ – उत्कृष्ट योग द्वारा और उत्कृष्ट बंधाद्धा द्वारा बांधी हुई देवायु और नरकायु का
१. पंच संग्रह पंचम द्वार सत्ताधिकार गा. १६१