________________
सत्ताप्रकरण ]
[ ३८१
पुनः असंख्यात वर्षायुष्क भोगभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां अति संक्लिष्ट होकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल से स्त्रीवेद को बंध से पूरित करने पर और नपुंसकवेद के दलिकों के संक्रमण से प्रचुर परिणाम में स्त्रीवेद के पूरित होने के समय उस जीव के स्त्रीवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। तथा –
पुरिसस्स पुरिस-संकम पएस उक्कस्स सामिगस्सेव।
इत्थी जं पुण समयं, संपक्खित्ता हवई ताहे ॥ ३०॥ शब्दार्थ - पुरिसस्स - पुरुषवेद का, पुरिस-संकम पएसउक्स्स सामिगस्सेव - पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम का स्वामी ही, इत्थी - स्त्रीवेद का, जं - जिस, पुण – किन्तु, समयं – समय, संपक्खित्ता – संप्रक्षेप करता है, हवइ – होता है, ताहे – उस समय।
गाथार्थ – पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का स्वामी ही पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी है। किन्तु विशेषता यह है कि जिस समय वह स्त्रीवेद का पुरुषवेद में संप्रक्षेप करता है, उस समय वह पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी होता है।
विशेषार्थ – पुरुषवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व उत्कृष्ट पुरुषवेद संक्रम के स्वामी के समान ही जानना चाहिये। इसका आशय यह है कि जो उत्कृष्ट पुरुषवेद के संक्रम का स्वामी है, वही जीव पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी भी जानना चाहिये। विशेष यह है कि जिस समय स्त्रीवेद को पुरुषवेद में प्रक्षेपण करता है अर्थात संक्रमाता है, उस समय में वह पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेश सत्व का स्वामी होता है। तथा –
तस्सेव उ संजलणा, पुरिसाइ कमेणसव्वसंछोभे।
चउरुवसमित्तु खिप्पं, रागंते साय उच्च जसा ॥ ३१॥ शब्दार्थ – तस्सेव उ – उसी के ही, संजलणा – संज्वलनचतुष्क का, पुरिसाई - पुरुषवेदादिक का, कमेण - क्रम से, सव्वसंछोभे - सर्वसंक्रम करने पर, चउरुवसमित्तु - चार बार मोहनीय का उपशम कर, खिप्पं – शीघ्र, रागंते – सूक्ष्मसंपराय, के अंत में, साय उच्च जसा - सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यश:कीर्ति का।
गाथार्थ – उसी जीव के ही पुरुषवेदादिक का क्रम से सर्वसंक्रम करने पर संज्वलन कषायों का तथा चार बार मोहनीय का उपशम कर शीघ्र क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीव के सूक्ष्मसंपराय के अंत में सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यश:कीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है।