________________
सत्ताप्रकरण ]
[ ३५३
इसलिए सास्वादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में सम्यग्मिथ्यात्व अवश्य रहता है तथा मिथ्यादृष्टि
और अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान पर्यन्त आठ कुल मिलाकर नौ गुणस्थानों में भजनीय है, अर्थात् कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता है। इसका विवेचन पूर्वोक्त प्रकार से स्वयमेव समझ लेना चाहिए।
_ 'संयोजणा उ नियमा' इत्यादि अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायें मिथ्यादृष्टि और सास्वादन सम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानों में नियम से होती हैं। क्योंकि ये दोनों ही गुणस्थानवी जीव अवश्य ही अनन्तानुबंधी कषायों को बांधते हैं और पांच गुणस्थानों में अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) से अप्रमत्तसंयत पर्यन्त पांच गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी कषाय भजनीय हैं। यदि उनका उद्वलन हो जाता है तो नहीं रहती हैं, अन्यथा उनका अस्तित्व रहता है यथा -
खवगानियट्टिअद्धा, संखिज्जा होति अट्ठ वि कसाया।
निरयतिरियतेर - सगं निद्दानिहातिगेणुवरि ॥६॥ शब्दार्थ - खवगानियट्ठिअद्धा - अनिवृत्तिकरणकाल के, संखिज्जा - संख्याताभाग, होंति – होती हैं, अट्ठवि – आठों ही, कसाया – कषाय, निरयतिरियतेरसगं - नरक तिर्यंच त्रयोदशक, निद्दानिद्दातिग - निद्रानिद्रात्रिक, इण - इन, उवरिं - ऊपर, आगे।
गाथार्थ - आठों ही कषाय क्षपक के अनिवृत्तिकरणकाल के संख्याता भाग तक रहती हैं तथा नरक-तिर्यंचत्रयोदशक और निद्रनिद्रात्रिक इन सोलह प्रकृतियों की सत्ता अनिवृत्तिकरण के संख्याता भाग से आगे भी होती है।
विशेषार्थ - अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क रूप आठों कषायें क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के संख्याता काल तक विद्यमान रहती हैं। उसके आगे क्षय हो जाने से नहीं रहती हैं। किन्तु उपशमश्रेणी की अपेक्षा उपशान्तमोह गुणस्थान में उनका सत्व जानना चाहिये।
____ एकान्तरूप से नरक-तिर्यंचप्रायोग्य नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म साधारण रूप नामकर्म की तेरह प्रकृतियां एवं निद्रनिद्रात्रिक अर्थात् निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि, आठों मध्यम कषायों के क्षय से आगे स्थितिखंड सहस्त्र व्यतीत होने पर एक साथ क्षय को प्राप्त होती हैं। इसलिये जब तक उनका क्षय नहीं होता है, तब तक उनका सत्व रहता है, और क्षय हो जाने पर सत्व नहीं रहता है। किन्तु उपशमश्रेणी में तो ये सोलह प्रकृतियां उपशांतमोह गुणस्थान तक विद्यमान रहती हैं।