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[ ३६१
सत्ताप्रकरण ]
गाथार्थ कितने ही आचार्य दर्शनामोहनीयत्रिक का क्षय हो जाने पर पच्चीस प्रकृतिक सत्वस्थान भी मानते हैं और अनन्तानुबंधी का नाश (क्षय) या उपशम पीछे मानते हैं ।
विशेषार्थ - कितने ही आचार्य पच्चीस प्रकृतियों वाले सत्वस्थान को भी स्वीकार करते हैं। वे पहले दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का क्षय हो जाने के पश्चात् अनन्तानुबंधी कषायों का नाश मानते हैं । इसलिये उनके मत से दर्शनमोहत्रिक के क्षय हो जाने पर पच्चीस प्रकृतिरूप सत्वस्थान भी प्राप्त होता है ।
प्रश्न यदि ऐसा है तो उनका यह मत स्वीकार क्यों नहीं किया जाता है?
उत्तर
उनके इस मत का आर्ष (आगम) के साथ विरोध होने से स्वीकार नहीं करते हैं। जैसा कि चूर्णिकार ने कहा है
तं आरिसे न मिलइ तेण न इच्छिज्जइत्ति,
अर्थात् उनका यह मत आर्ष में नहीं मिलता, इसके अतिरिक्त वे ही आचार्य अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम मानते हैं, किन्तु परमार्थ के ज्ञाता अन्य आचार्य ऐसा नहीं मानते हैं । इसीलिये यहां भी पहले अनन्तानुबंधी कषायों की उपशमना का कथन नहीं किया गया है।
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नव्वे, नउइ अधिक, अ
स्थान ।
मोहनीयकर्म के स्थानों का विचार करने के पश्चात अब नामकर्म के प्रकृतिसत्वस्थानों का प्रतिपादन करते हैं
तिगदुगसयं छप्पंचग चउतिगदुगाहिगासी, नव शब्दार्थ तिगदुगसयं - तीन और नव्वै, गुणनउई - नवासी, चउ
दो
सौ, छप्पंचगतिनउई छह पांच तीन अधिक तिग – तीन,
दो, अहिग
अस्सी, नव नौ अट्ठ
दुग और, नामठाणइं
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तिगनउई नउड़ गुणनउई च ।
अट्ठ य नामठाणाई ॥ १४ ॥
चार,
आठ, य
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नामकर्म के
गाथार्थ
एक सौ तीन, एक सौ दो, छियानवे, पंचानवै, तैरानवै, नव्वै, नवासी, चौरासी, तिरासी, बयासी, नौ और आठ ये बारह नामकर्म के सत्तास्थान 1
विशेषार्थ – नामकर्म के बारह प्रकृतिसत्वस्थान होते हैं, यथा एक सौ तीन प्रकृतिक, एक सौ दो प्रकृतिक, छियानवै प्रकृतिक, पंचानवै प्रकृतिक, तेरानवै प्रकृतिक, नव्वै प्रकृतिक, नवासी प्रकृतिक, चौरासी प्रकृतिक, तेरासी प्रकृतिक, बयासी प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक और आठ