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[ कर्मप्रकृति
अचक्षुदर्शनावरण, सुयसमत्तस्स – श्रुतसम्पन्न, जेट्ठलद्धिस्स – उत्कृष्ट लब्धिवंत के, परमोहिस्सपरमावधिवंत के, ओहिदुगं - अवधिद्विक का, मणनाणं - मनःपर्यवज्ञानावरण का, विउलनाणस्सविपुलमति मनःपर्यवज्ञानवंत के।
गाथार्थ - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण का जघन्य अनुभागसत्व उत्कृष्ट लब्धिवंत श्रुतसम्पन्न जीव के, अवधिद्विक आवरण का परमावधिवंत के तथा मनःपर्यवज्ञानावरण का विपुलमति मनःपर्यवज्ञानवंत के जघन्य अनुभागसत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ - मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण का जघन्य अनुभागसत्व श्रुतसम्पन्न अर्थात् सकल श्रुतपारगामी चतुर्दशपूर्वधर और ज्येष्ठ लब्धिक अर्थात् उत्कृष्ट श्रुतार्थलब्धि में वर्तमान श्रुतकेवली में प्राप्त होता है। इसका अभिप्राय यह है कि मतिज्ञानावरणादि चारों प्रकृतियों का उत्कृष्ट श्रुतार्थसम्पन्न चतुर्दशपूर्वधर साधु जघन्य अनुभागसत्व का स्वामी जानना चाहिये।
___'ओहिदुगं' अर्थात् अवधिद्विक, अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण का जधन्य अनुभागसत्व परमावधिज्ञान में होता है।
अर्थात् अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के जघन्य अनुभागसत्व का स्वामी परमावधिज्ञान से युक्त संयत जानना चाहिये।
'मणनाणं' मनोज्ञान अर्थात् मनःपर्यवज्ञानावरण का जघन्य अनुभागसत्व विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी जानना चाहिये। स्वामित्व के कारण को अवधिज्ञानावरण के समान जानना। क्योंकि लब्धिसहित जीव के बहुत अनुभाग का विनाश प्राप्त होता है, इसलिये गाथा में 'परमोहिस्स' इत्यादि पद दिया है।
पूर्वोक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष रही प्रकृतियों के जो जीव जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामी हैं, वे ही जघन्य अनुभागसत्व के भी स्वामी हैं।
इस प्रकार अनुभागसत्व के स्वामियों का कथन जानना चाहिये। अनुभागसत्वस्थान के भेद अब अनुभागसत्वस्थानों के भेदों का निरूपण करते हैं -
बंधहयहयहउप्प-त्तिगाणि कमसो असंखगुणियाणि। उदयोदीरणवजाणि, होंति अणुभागठाणाणि॥ २४॥