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सत्ताप्रकरण ]
[ ३७३ मणनाणे – मनःपर्यवज्ञानावरण का, दुट्ठाणं - द्विस्थानक, देसहरं – देशघाती, सामिगो - स्वामि, य - और, सम्मत्ते – सम्यक्त्वमोहनीय, आवरणविग्घसोलसग - आवरण और विध्न (अंतराय) की सोलह प्रकृतियों के, किट्टि – किट्टिकृत संज्वलनलोभ, वेएसु - वेदों का, य - और, सगंते – स्व अन्त्य समय में (वर्तमान जीव)।
गाथार्थ – अनुभागसंक्रम के तुल्य अनुभागसत्व जानना चाहिये। किन्तु विशेष यह है कि छह नोकषायों को छोड़कर शेष घातिनी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसत्व देशघाती और एक स्थानक है। मनपर्यवज्ञानावरण का अनुभागसत्व द्विस्थानक और देशघाती है। सम्यक्त्वमोहनीय, आवरण और अन्तराय की सोलह प्रकृतियों के किट्टिकृत संज्वलनलोभ और तीनों वेदों के जघन्य अनुभागसत्व का स्वामी स्व अन्त्य समय में वर्तमान जीव है।
विशेषार्थ – अनुभागसंक्रमण के तुल्य अनुभागसत्व समझना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अनुभागसंक्रम में स्थान, प्रत्यय, विपाक, शुभाशुभत्व, सादि-अनादित्व और स्वामित्व का पूर्व में प्रतिपादन किया गया है उसी प्रकार वे सब अधिकार यहां अनुभागसत्व में भी जानना चाहिये। किन्तु विशेषता यह है कि हास्यादि षट्क को छोड़कर शेष मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, संज्वलनचतुष्क, वेदत्रिक और अतंरायपंचक इन अठारह देशघाती प्रकृतियों का जघन्य अनुभागसत्व स्थान की अपेक्षा एकस्थानक और घाति संज्ञा की अपेक्षा देशहरं अर्थात् देशघाति जानना चाहिये। किन्तु मन:पर्यवज्ञानावरण का अनुभागसत्व स्थान की अपेक्षा द्विस्थानक और घाति संज्ञा की अपेक्षा देसहरदेशघाति है।
उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी ही उत्कृष्ट अनुभागसत्व के स्वामी हैं और जघन्य अनुभागसत्व के स्वामियों का कथन 'सामिगो य' पद से प्रारम्भ करते हुए बताया है कि सम्यक्त्वमोहनीय, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क अन्तरायपंचक रूप सोलह प्रकृतियों, किट्टिरूप संज्वलनलोभ और तीनों वेदों के जघन्य अनुभागसत्व के स्वामी अपने-अपने क्षय होने के अंतिम समय में वर्तमान जीव जानना चाहिये। अतः इस जघन्य अनुभागसत्व के स्वामित्व में जो विशेषता है, उसे कहते हैं -
मइसुयचक्खुअचक्खूण, सुयसमत्तस्स जेटलद्धिस्स।
परमोहिस्सोहिदुर्ग, मणनाणं विउलनाणस्स ॥ २३॥ शब्दार्थ - मइसुयचक्खुअचक्खूण - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण