________________
सत्ताप्रकरण ]
[ ३१
के जघन्य स्थितिसत्व के स्वामी अयोगिकेवली हैं।
इस प्रकार जघन्य स्थितिसत्कर्म के स्वामित्व का वर्णन जानना चाहिये। स्थितिभेद निरूपण अब स्थिति के भेदों का विचार करते हैं -
ठिइसंतवाणाई, नियगुक्कस्सा हि थावरजहन्नं ।
नेरंतरेण हेट्ठा, खवणाइसु संतराइं पि॥ २०॥ शब्दार्थ - ठिइसंतट्ठाणाई - स्थितिसत्वस्थान, नियगुक्कस्सा - अपने-अपने उत्कृष्ट, हि - किन्तु, थावरजहन्नं - स्थावर योग्य जघन्य स्थितिस्थान, नेरंतरेण - निरन्तर रूप से, हेट्ठा- नीचे, खवणाइसु - क्षपणा आदि में, संतराई - सान्तर, पि - भी।
गाथार्थ – अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिसत्वस्थान से नीचे स्थावरों के योग्य जघन्य स्थितिस्थान तक निरन्तर रूप से स्थितिस्थान है। किन्तु क्षपणा आदि में सान्तर स्थितिस्थान भी होता
विशेषार्थ – सभी कर्मों के अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिस्थान से एक समय से आरंभ करके एक-एक समय कम तब तक करते जाना चाहिये जब तक कि स्थावर-जघन्य अर्थात् एकेन्द्रिय प्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान होते हैं, इतने प्रमाण स्थितिकंडकों में जितने समय होते हैं उतने प्रमाण स्थितिस्थान नाना जीवों की अपेक्षा निरन्तर अर्थात् अन्तराल रहित पाये जाते हैं, यथाउत्कृष्ट स्थितिवाला अंतिम एक स्थितिस्थान, एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिवाला दूसरा स्थितिस्थान है, दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति वाला तीसरा स्थितिस्थान है। इस प्रकार एकेन्द्रियों के योग्य जघन्य स्थितिसत्व प्राप्त होने तक कहना चाहिये।
एकेन्द्रिय प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्व के नीचे कर्म क्षपणा के समय और उद्वलना में सान्तर अर्थात् अन्तराल वाले स्थितिस्थान पाये जाते है। वहां निरन्तर स्थान भी पाये जाते हैं। जिनका ग्रहण करने के लिये गाथा में अपि शब्द दिया है।
प्रश्न – ये निरन्तर सान्तर स्थितिस्थान कैसे पाये जाते हैं ?
उत्तर – एकेन्द्रिय प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्व उपरितन अग्रिम भाग से पल्योपम के असंख्यातवें स्थितिखण्ड को खंडन करना प्रारम्भ करता है। खंडन प्रारम्भ करने के प्रथम समय से लेकर समय समय अधोवर्ती स्थितिसत्व से उदयवती प्रकृतियों के अनुभव से और अनुदयवती