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[ कर्मप्रकृति उत्तर – क्योंकि उदय और उदीरणा के प्रवर्तमान होने पर नियम से बंध, उद्वर्तना, अपवर्तना, स्थितिघात और रसघात जन्य स्थानों में से कोई न कोई स्थान अवश्य होते हैं। इसलिये उदय और उदीरणा जनित स्थान उन्हीं में अर्थात् बंधोत्पत्तिक आदि स्थानों में अन्तप्रविष्ट हो जाते हैं। इस कारण उदय और उदीरणा स्थान पृथक् नहीं गिने जाते हैं।
___इस प्रकार अनुभागसत्कर्म का वर्णन जानना चाहिये। प्रदेशसत्कर्म निरूपण
अब प्रदेशसत्कर्म प्रारम्भ करते हैं। इसके तीन अधिकार है, यथा – १ भेदप्ररूपणा, २ साादि-अनादिप्ररूपणा और ३ स्वामित्व।
भेदप्ररूपणा पहले के समान जानना चाहिये। अतएव अब सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है - मूलप्रकृति विषयक और उत्तरप्रकृति विषयक। मूलप्रकृति विषयक सादिअनादिप्ररूपणा इस प्रकार है।
सत्तण्हं अजहण्णं, तिविहं सेसा दुहा पएसम्मि।
मूलपगईसु आऊसु (स्स), साई अधुवा य सव्वेवि ॥ २५॥ शब्दार्थ – सतण्हं – सात का, अजहण्णं - अजघन्य, तिविहं – तीन प्रकार का, सेसा – शेष, दुहा – दो प्रकार का, पएसम्मि – प्रदेशसत्व में, मूलपगईसु - मूल प्रकृतियों में, आऊसु - आयु के, साई - सादि, अधुवा – अध्रुव, य - और, सव्वेवि – सभी।
गाथार्थ – मूलप्रकृतियों में सात कर्मों का अजघन्य प्रदेशसत्व तीन प्रकार का है और शेष प्रदेशसत्व दो प्रकार का है। आयु के सभी सत्व सादि और अध्रुव होते हैं।
विशेषार्थ – आयुकर्म को छोड़कर सात मूल प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशसत्व तीन प्रकार का है, यथा – अनादि, ध्रुव और अध्रुव। इनमें से आयु को छोड़कर सातों कर्मों के अपनेअपने क्षय के अवसर पर चरम स्थिति में वर्तमान क्षपितकर्मांश जीव के जघन्य प्रदेशसत्व होता है और वह सादि तथा अध्रुव है। क्योंकि वह सदैव पाया जाता है। ध्रुवत्व और अध्रुवत्व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से है।
___ 'सेसा दुद्दा' अर्थात् शेष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य विकल्प दो प्रकार के होते हैं, यथा- सादि और अध्रुव। इनमें से सप्तम पृथ्वी में वर्तमान गुणितकर्मांश मिथ्यादृष्टि नारकी के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व पाया जाता है, किन्तु शेष काल में अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्व। इसलिये ये दोनों ही सादि और अध्रुव हैं। जघन्य प्रदेशसत्व पूर्व में बताया जा चुका है।