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[ कर्मप्रकृति
६ आठ प्रकृतिक । इनमें से आदि के चार प्रकृति सत्वस्थान अयोगिकेवली के द्विचरम समय तक पाये जाते हैं तथा चरम समय में तीर्थंकर और अतीर्थंकर केवली की अपेक्षा अन्तिम दो प्रकृति सत्वस्थान होते हैं ।
इस प्रकार प्रकृतिसत्व का विवेचन किया ।
स्थिति-सत्कर्मनिरूपण
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अब स्थिति - सत्कर्म (सत्ता) का विवेचन प्रारंभ करते हैं। इसके भी १ भेद, २ सादि - अनादि प्ररूपणा और ३ स्वामित्व ये तीन अर्थाधिकार हैं ।
भेद का वर्णन पूर्वोक्त प्रकृतिसत्व के समान समझना चाहिये ।
सादि-अनादि प्ररूपणा
सादि-अनादि प्ररूपणा दो प्रकार की है मूलप्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक । इनमें से पहले मूलप्रकृतिविषयक सादि - अनादि प्ररूपणा का कथन करते हैं
मूलठिई अजहन्नं तिहा चउद्धा य पढमगकसाया । तित्थयरुव्वलणायु - गवज्जाणि तिहा दुहाणुत्तं ॥ १६ ॥ शब्दार्थ - मूलठिई – मूलकर्मों की स्थिति, अजन्नं
अजघन्य, तिहा
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और,
पढमग
प्रकार का, चउद्धा चार प्रकार का, य तित्थयरुव्वलण तीर्थकर और उद्वलन प्रकृतियों, तिहा - तीन प्रकार का, दुहाणुत्तं - अनुक्त दो प्रकार का ।
आयुग
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1
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प्रथम, कसाया
आयु, वज्जाणि
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तीन
कषाय,
छोड़कर,
गाथार्थ मूल प्रकृतियों सम्बंधी अजघन्य स्थितिसत्व तीन प्रकार का और प्रथम कषाय सम्बन्धी अजघन्य स्थितिसत्व चार प्रकार का है। तीर्थंकर और उद्वलन प्रकृतियों तथा आयु को छोड़कर शेष प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसत्व तीन प्रकार का है और अनुक्त विकल्प दो प्रकार के हैं।
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विशेषार्थ मूल प्रकृतियों सम्बन्धी अजघन्य स्थितिसत्व तीन प्रकार का है, यथा
मूल प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसत्व
अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अपने अपने क्षय होने के अंत में एक समय मात्र स्थिति के शेष रहने पर पाया जाता है । इसलिये वह सादि और अध्रुव है। उससे अन्य सभी स्थितिसत्व अजघन्य है, और वह अनादि है । क्योंकि सदा ही पाया जाता है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प पूर्व के समान क्रमशः अभव्य और भव्य जीवों की
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