________________
सत्ताप्रकरण ]
[ ३६५ अपेक्षा से जानना चाहिये। उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही स्थितिसत्व परिवर्तन से अनेक बार होते रहने के कारण सादि और अध्रुव हैं।
इस प्रकार मूल प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा जानना चहिये।
उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा का प्रारम्भ गाथा में 'चउद्धा य' इत्यादि पद से किया गया है। इसका आशय यह है कि प्रथम अनन्तानुबंधी कषायों का अजघन्य स्थितिसत्व चार प्रकार का है, यथा - सादि अनादि ध्रुव और अध्रुव। वह इस प्रकार जानना चाहिये कि इनका जघन्य स्थितिसत्व अपने क्षय के उपान्त्य समय में स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र एक स्थिति रूप है। अन्यथा दो समय प्रमाण है और वह सादि तथा अध्रुव है। इससे अन्य सभी स्थितिसत्व अजघन्य है और वह भी उद्वलित प्रकृतियों का पुनः बंध होने पर सादि है और उस स्थान को अप्राप्त जीवों के अनादि है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प पूर्व के समान जानना चाहिये।
तीर्थंकर नामकर्म, उद्वलन योग्य तेईस प्रकृतियों और चारों आयु कर्मों को छोड़कर शेष एक सौ छब्बीस प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसत्व भी तीन प्रकार का होता है - अनादि ध्रुव और अध्रुव। जिन्हें इस प्रकार समझना चाहिये कि इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसत्व अपने अपने क्षय के अंत में उदयवती प्रकृतियों का एक समय मात्र स्थिति रूप है और अनुदयवती प्रकृतियों का स्वरूपतः एक समय मात्र स्थिति रूप है, अन्यथा दो समय मात्र है और वह सादि एवं अध्रुव है। उससे अन्य सभी स्थितिसत्व अजघन्य है और वह अनादि है। क्योंकि सदैव पाया जाता है। ध्रुवत्व, अध्रुवत्व पूर्व के समान अभव्य और भव्य की अपेक्षा समझना चाहिये।
__'दुहाणुत्तंति' अर्थात् उक्त प्रकृतियों के अनुक्त उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य रूप स्थितिसत्व एवं तीर्थकर नाम तथा उद्वलन योग्य देवद्विक, नरकद्विक, मनुष्यद्विक वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, उच्चगोत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तेईस प्रकृतियों के तथा चारों आयुकर्मों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट रूप चारों विकल्प दो प्रकार के हैं, यथा सादि और अध्रुव। वे इस प्रकार हैं - उक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसत्व पर्याय से अर्थात् परिवर्तन होते रहने से अनेक बार होता है। इसलिये ये दोनों ही सादि और अध्रुव हैं। जघन्य स्थितिसत्व पहले कहा जा चुका है। तीर्थंकर नाम आदि प्रकृतियां की अध्रुवसत्ता होने से चारों ही विकल्प सादि और अध्रुव जानना चाहिये।
___ मूल प्रकृतियों के नहीं कहे गये जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसत्व भी दो प्रकार के हैं। जो पूर्व में कहे जा चुके है। इस प्रकार सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए।