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सत्ताप्रकरण ]
[ ३५७ शब्दार्थ – पढमचरिमाणमेगं - प्रथम और अंतिम का एक एक, छन्नवचत्तारि - छह, नौ और चार का, बीयगे - दूसरे में, तिन्नि - तीन, वेयणियाउयगोएसु - वेदनीय आयु और गोत्र में, दोन्नि – दो का, एगो – एक का, त्ति – इस प्रकार, दो - दो, होति – होते हैं।
गाथार्थ – प्रथम और अंतिम कर्म का एक स्थान होता है दूसरे कर्म के छह का नौ का, चार का इस प्रकार तीन स्थान हैं । वेदनीय, आयु और गोत्र में दो और एक प्रकृतिक इस तरह दो दो सत्वस्थान हैं।
विशेषार्थ – प्रथम और चरम अर्थात् ज्ञानावरण और अंतराय कर्म इन दोनों कर्मों का पांच प्रकृत्यात्मक एक एक सत्वस्थान है और वह क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय तक पाया जाता है।
__दूसरे दर्शनावरण कर्म के तीन प्रकृतिस्थान हैं, यथा – नौ, छह और चार प्रकृतिक। इनमें से दर्शनावरण की सर्व प्रकृति समुदाय रूप नौ प्रकृतिक सत्वस्थान है। ये नौ प्रकृतियां उपशमश्रेणी की अपेक्षा उपशांतमोह गुणस्थान तक विद्यमान रहती हैं और क्षयक श्रेणी की अपेक्षा अनिवृत्तिबादरसंपराय काल के संख्यात भागों तक विद्यमान रहती हैं। उससे आगे स्त्यानर्धित्रिक का क्षय हो जाने पर छह प्रकृतियां क्षीणकषायगुणस्थान के द्विचरम समय तक विद्यमान रहती हैं। उस द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला सत्व से विच्छन्न होती हैं। इसलिए क्षीणकषाय गुणस्थान में चरम समय में दर्शनावरण की चार प्रकृतियां विद्यमान रहती हैं। अंतिम समय में वे भी सत्व से विच्छिन्न हो जाती हैं।
____वेदनीय आयु और गौत्र कर्म के दो प्रकृतिस्थान हैं, यथा – द्विप्रकृतिक, और एकप्रकृतिक। इनमें जब तक वेदनीय की एक भी प्रकृति का क्षय नहीं होता, तब तक दोनों की सत्ता रहती हैं और एक के क्षय हो जाने पर एक ही की सत्ता रहती है। गोत्र की दोनों प्रकृतियों में से जब तक एक का क्षय या उद्वलन नहीं होता, तब तक दोनों की सत्ता रहती है किन्तु नीचगोत्र के क्षय हो जाने पर अथवा उच्चगोत्र का उद्वलन हो जाने पर एक प्रकृति की सत्ता रहती है। आयुकर्म की बंधी हुई आगामी भव की आयु उदय को प्राप्त नहीं होती है, तब तक आयुकर्म की दो प्रकृतियां विद्यमान रहती हैं और बद्ध आयुकर्म के उदय होने पर पूर्व आयुकर्म क्षीण हो जाता है। इसलिये एक प्रकृति की सत्ता रहती है।
ऊपर छह कर्मों के प्रकृतिसत्वस्थानों का कथन किया गया है। अब शेष रहे मोहनीय और नामकर्म के प्रकृतिसत्वस्थानों का प्रतिपादन करते हैं। उनमें से मोहनीय कर्म के स्थान इस प्रकार हैं -