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ग्यारह,
बार
छ छह, सत्त
मोहनीय कर्म के ।
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शब्दार्थ - एगाइ एक को आदि करके, तेरसगवीसा
बारह,
सात, अट्ठ
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एगाइ जाव पंचग मेक्कारस बार तेरसिगवीसा । बिय तिय चउरो छ, सत्त अट्ठवीसा य मोहस्स ॥ ११॥
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जाव
तेरह इक्कीस, बिय
आठ (अधिक),
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[ कर्मप्रकृति
वीसा
तक, पंचग - पांच, एक्कारस
दो, तिय- तीन, चउरो बीस, य और, मोह
चार,
गाथार्थ एक को आदि करके पांच तक ग्यारह, बारह, तेरह, इक्कीस और दो, तीन, चार, छह, सात और आठ अधिक बीस, कुल मिलाकर मोहनीय कर्म के ये पन्द्रह प्रकृतिसत्वस्थान है 1
विशेषार्थ
मोहनीय कर्म के पन्द्रह प्रकृतिसत्वस्थान होते हैं, यथा एक, दो, तीन, चार, पांच, ग्यारह, बारह, तेरह, इक्कीस, बाईस, तेईस, चौबीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक |
इन सत्वस्थानों का सरलता पूर्वक बोध कराने के लिये गाथा के विपरीत क्रम से इनकी व्याख्या की जाती है। अर्थात् पश्चानुपूर्वी क्रम से अट्ठाईस प्रकृतिसत्वस्थान से इनका स्पष्टीकरण किया जाता है, जो इस प्रकार है।
मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियों का समुदाय रूप अट्ठाईस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। उसमें से सम्यक्त्व की उवलना होने पर सत्ताईस प्रकृतिक और सत्ताईस प्रकृतिक स्थान में से सम्यग्मिथ्यात्व के उद्वलित होने पर २६ प्रकृतिक अथवा अनादिमिथ्यादृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व के उद्वलित होने पर २६ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । २८ प्रकृतिक में से अनन्तानुबंधीकषायचतुष्क के क्षय होने पर चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । उसमें से मिथ्यात्व के क्षय होने पर तेईस प्रकृतिक, उसमें से सम्यग्मिथ्यात्व के क्षीण होने पर बाईस प्रकृतिक, उसमें से सम्यक्त्व के क्षीण होने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । उसमें से आठ मध्यम कषायों के क्षय होने पर तेरह प्रकृतिक, उसमें से भी नंपुसक वेद के क्षय हो जाने से बारह प्रकृतिक, उसमें से स्त्रीवेद के क्षीण होने पर ग्यारह प्रकृतिक उसमें हास्यादिषट्क नोकषायों के क्षय होने पर पांच प्रकृतिक, उसमें से पुरुषवेद के क्षय होने पर चार प्रकृतिक, उसमें से संज्वलन क्रोध के क्षय होने पर तीन प्रकृतिक और उसमें से संज्वलन मान के क्षय हो जाने पर दो प्रकृतिक सत्वस्थान, उसमें से संज्वलन माया के क्षय होने पर एक प्रकृतिक सत्वस्थान होता है ।