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सत्ताप्रकरण ]
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सत्व रहता है।
"तणुरागंतोत्तिलोभो य" अर्थात् जब तक तनुरागांत यानि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का अन्त नहीं होता है तब तक संज्वलन लोभ का सत्व जानना चाहिये। इससे आगे उसका असत्व है। किन्तु उपशमश्रेणी की अपेक्षा हास्यादि सभी प्रकृतियां उपशांतमोह गुणस्थान तक जानना चाहिये तथा -
मणुयगइजाइतस - बायरं च पज्जत्तसुभगआएजं। जसकित्ती तित्थयरं, वेयणिउच्चं च मणुयाणं ॥८॥ भवचरिमस्समयम्मि उ, तम्मग्गिल्लसमयम्मि सेसाउ।
आहारगतित्थयरा, भजा दुसु नत्थि तित्थयरं ॥९॥ शब्दार्थ - मणुयगइ – मनुष्यगति, जाइ - (पंचेन्द्रिय) जाति, तसवायरं – त्रस बादर, च - और, पज्जत्त - पर्याप्त, सुभग – सुभग, आएजं - आदेय, जसकित्ती - यश कीर्ति, तित्थयरं - तीर्थकर, वेयणि – वेदनीय, उच्चं - उच्चगोत्र, च - और, मणुयाणं - मनुष्यायु
भवचरिमस्समयम्भि - भव के चरम समय तक, उ - और, तम्मग्गिल्लसमयम्मि - उसके (अयोगि के) उपान्त्य समय तक, सेसाउ - शेष प्रकृतियों का, आहारग - आहारक, तित्थयरा - तीर्थंकर, भज्जा - भजनीय, दुसु - दो में, नत्थि – नहीं है, तित्थयरं – तीर्थंकर।
गाथार्थ – मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस बादर पर्याप्त सुभग आदेय, यशकीर्ति तीर्थंकर, वेदनीय, उच्चगोत्र और मनुष्यायु का सत्व आयोगि के भव के चरम समय तक रहता है। शेष प्रकृतियों का सत्व उसके उपान्त्य समय तक रहता है। आहारक और तीर्थंकर नामकर्म सभी गुणस्थानों में भजनीय है किन्तु तीर्थंकर नाम दूसरे और तीसरे गुणस्थानों में नहीं पाया जाता है।
विशेषार्थ - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस बादर, पर्याप्त सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, अन्यतर वेदनीय, उच्चगोत्र और मनुष्यायु ये बारह प्रकृतियां भव के चरम समय तक रहती हैं। अर्थात् अयोगिकेवली के चरम समय तक ये विद्यमान रहती हैं, इससे परे यानी सिद्धों में नहीं रहती
उक्त बारह प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी तिरासी प्रकृतियां 'तस्सग्गिलसमयम्मि' अर्थात् भव के चरम समय के पूर्व के समय में यानि अयोगिकेवली के द्विचरम समय में विद्यमान रहती हैं, किन्तु चरम समय में विद्यमान नहीं रहती हैं।